Write an essay on problem of succession after Kumar Gupta I.

Write an essay on problem of succession after Kumar Gupta I.

उपरोक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि राजसिंहासन की प्राप्ति के लिए स्कन्दगुप्त को उत्तराधिकार का युद्ध पुरुदत्त न लड़ना पड़ा और इस युद्ध में पुरुदत्त को पराजित कर सिंहासन प्राप्त किया, परन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात् जो गृहयुद्ध हुआ वह स्कन्दगुप्त और पुः के बीच ही सीमित नहीं था, उसमें अन्य राजकुमार भी शामिल थे। इन विद्वानों का अनुमान है कि कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद उसके अन्य पुत्रों घटोत्कच और चन्द्रगुप्त तृतीय ने भी साम्राज्य के विभिन्न भागों में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया होगा और स्कन्दगुप्त को इनके साथ भी युद्ध करना पड़ा होगा और युद्ध में स्कन्दगुप्त ने तीनों ही राजकुमारों को परास्त कर राजसिंहासन प्राप्त किया होगा, जैसाकि पी एल. गुप्त का मत है कि कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु के उपरान्त घटोत्कच गद्दी पर बैठा और उसे युद्ध में परास्त कर स्कन्दगुप्त ने राजसिंहासन प्राप्त किया।
उपरोक्त मतों का खण्डन–डॉ. हेमचन्द्रराय चौधरी स्मिथ और पन्नालाल तथा इनके मतों के समर्थक इतिहासकार उत्तराधिकार के युद्ध की । सम्भावना को स्वीकार नहीं करते उन्होंने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये हैं।

भीतरी अभिलेख

(i) भीतरी अभिलेख के इस कथन के आधार पर कि गुप्तवंश की राजलक्ष्मी विचलित हो गयी थी और स्कन्दगुप्त ने उसकी पुनस्र्थापना की इससे गृहयुद्ध का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अभिलेख में कहीं भी गृहयुद्ध का उल्लेख नहीं है। गुप्तवंश की राजलक्ष्मी को विचलित सम्भवतः पुष्यमित्र व हूणों ने किया। अपने पिता के शासनकाल में युवराज के रूप में स्कन्दगुप्त ने पुष्यमित्रों और हूणों को पराजित कर गुप्त साम्राज्य की राजलक्ष्मी को पुनस्र्थापित किया। यह कहना कि आन्तरिक विद्रोह के कारण राजलक्ष्मी विचलित हुई थी असंगत है।
(ii) दूसरे तर्क के सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि स्कन्दगुप्त निःसंतान था और उसकी मृत्यु हो जाने पर ही उसका भाई पुरुदत्त राजा बना था।
(ii) कुमारगुप्त प्रथम के स्कन्दगुप्त और पुरुदत्त दोनों ही पुत्र थे। जेठा होने या अपने पिता द्वारा मनोनीत होने के कारण पहले स्कन्दगुप्त ने शासन किया और उसकी मृत्यु के पश्चात् पुरुदत्त राजा बना।
(iv) जूनागढ़ अभिलेख में जिन शत्रुओं का वर्णन है वे शत्रु आन्तरिक शत्रु न होकर बाह्य शत्र थे जिनमें कि पुष्यमित्र और हूण मुख्य थे। इन्हीं से युद्ध लड़ना पड़ा। अतः इस बात से भी उत्तराधिकार के युद्ध की पुष्टि नहीं होती।

गिरिनार (जूनागढ़) लेख

(v) गिरिनार (जूनागढ़) लेख में यह वर्णन कि राजलक्ष्मी ने सभी राजपुत्रों को छोड़कर स्कन्दगुप्त को स्वीकार किया था। इससे गृहयुद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती । इससे सिर्फ यही कहा जा सकता है कि कुमार गुप्त ने स्कन्दगुप्त की वीरता और योग्यता के आधार पर ही उसे राज्य का उत्तराधिकारी मनोनीत किया। अत: राजली द्वारा करा * वा किये जाने के आधार पर आन्तरिक युद्ध की कल्पना करना असंगत प्रतीत होता है।
(vi) बिहार के साथ लेख और भीतरी राजमुद्रा वाले लेख के आधार पर दोनों ने ही अपने पिता का उत्पादानध्यात (उनके चरणों का उपासक) कहा है। इस आधार पर यह मान लेना कि दोनों ही राजसिंहासन के वैधानिक उत्तराधिकारी ५ असंगत लगता है। प्राचीन भारत के राजकुमार अपने को अपने पिता का चरण का उपासक कहते थे यह उनका अपने पिता के प्रति श्रद्धा का सूचक था न कि वैधानिक उत्तराधिकार का ।।
(vii) प्राचीन भारत के अनेक स्तम्भ लेख में भाईयों के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। उदाहरणार्थ प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के भाई काच का नाम नहीं मिलता। विष्णुवर्धन के अभिलेख में उसके भाई पुलकेशी के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। अभिलेख में भाई का नाम उल्लेखित होना जरूरी नहीं था । पुरुदत्त के अभिलेखों में स्कन्दगुप्त का तथा स्कन्दगुप्त के अभिलेखों में पुरुदत्त का नाम नहीं है । इस कारण दोनों को एक दूसरे का शत्रु मानना उचित नहीं है।

स्वर्णमुद्रा के आधार पर

| (viii) स्कन्दगुप्त की उस स्वर्णमुद्रा के आधार पर जिसमें राजलक्ष्मी उसे कुछ देती हुई दर्शायी गयी है इससे उत्तराधिकार के लिए युद्ध का अनुमान लगाना सही प्रतीत नहीं होता। इस स्वर्ण मुद्रा से यह माना जा सकता है कि स्कन्दगुप्त ने अपने बाह्य शत्रुओं को पराजित करके ही राजलक्ष्मी की रक्षा की थी।
(ix) भीतरी राजमुद्रा वाले लेख में स्कन्दगुप्त की माता का नाम नहीं है। यह इस बात का सूचक नहीं हो सकता कि उसकी माता महादेवी नहीं थी । हर्षवर्धन की माता यशोदती जिसका कि मधुबन और बाँसखेड़ा के ताम्रपत्रों में नाम नहीं है। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह महादेवी नहीं थी । प्राचीन भारत में महारानी के साथ महादेवी का प्रयोग करना आवश्यक नहीं था । चन्द्रगुप्त की पत्नी कुबेर नागा के लिए भी इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया गया जबकि वह वास्तव में राजमहिषी थी। अत: भीतरी अभिलेख के आधार यह मान लेना कि स्कन्दगुप्त की माता महारानी नहीं थी और उसका पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी नहीं था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. बासम का कथन कि स्कन्दगुप्त की माता शूद्रा थी, समझ से परे है । गुप्तवंश में ऐसा कोई नियम नहीं था कि सबसे बड़ी रानी का पुत्र या राजा का जेठा पुत्र ही उत्तराधिकारी हो । अत: यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि स्कन्दगुप्त ने अपनी योग्यता के आधार पर ही सिंहासन ग्रहण किया तो उसने गृहयुद्ध अवश्य ही किया उचित नहीं है।

पुरुदत्त के भीतरी राजमुद्रा वाले लेख

विद्वानों का यह भी कहना है कि पुरुदत्त के भीतरी राजमुद्रा वाले लेख में उसकी माता के नाम के न होने का कारण यह है कि यह अभिलेख पद्य में लिखा गया है और छन्द भंग दोष के डर से स्कन्दगुप्त की माता के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है।
डॉ. पी.एल. गुप्ता के मत का खण्डन करते हुए एलकन महोदय ने लिखा है कि ‘घटोत्कच की स्वर्ण मुद्रा अपनी शैली तथा भार के आधार पर पांचवीं शती के उत्तरार्द्ध में रखी जानी चाहिए जबकि स्कन्दगुप्त के शासनकाल की समाप्ति हो गयी थी । अतः घटोत्कच गुप्त तथा स्कन्दगुप्त के मध्य संघर्ष की कल्पना करना उचित नहीं है ।
उपरोक्त विवरण एवं अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर उधार , ४ : अंगीकार नहीं किया जा सकता और यहीं कहा जा सकता है कि प्रशासन द्रा १६, ४, उत्तराधिकारी स्कन्द गुप्त ही था। उपरोक्त प्रमाणों के अतिरिक्त अन्य प्रमुख भी उधळ युद्ध को प्रमाणित नहीं करते हैं। इन प्रमाण में निम्नलिखित को रखा जा सकता हैं।
(1) तिथिक्रम कुमार गुप्त की मृत्यु के उपरान्त स्कन्दगुप्त ही सिंहासन पर बैठा। यह इसकी पुष्टि कुमार गुप्त की मुद्राओं में अंकित अन्तिम तिथि गुप्त सम्वत् 16 (45) से होती है। यह तिथि स्कन्दगुप्त की गद्दी पर बैठने की तिथि है जो उसके गिरिनार (जुनाइट) अभिलेख में लिखी हुई है। यदि हम गुप्त सम्वत् 136 (455 ई) को कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु तिथि एवं स्कन्दगुप्त के राज्यारोहण की तिथि स्वीकार कर लें तो बहुत ही तक्रयुक्त है इससे फिर कोई भ्रम नहीं रह जाता कि कुमार गुप्त की मृत्यु के तुरंत बाद ही स्कन्दगुप्त सिंहासनारूढ़ हो गया होगा। इन दोनों के मध्य किसी ने भी शासन किया होता तो दोनों की तिथियाँ एक सी नहीं होती अतः इन दोनों के बीच किसी अन्य का शासन करना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और इन तिथियों के आधार पर कहा जा सकता है कि कुमार गुप्त के बाद स्कन्दगुप्त ही उत्तराधिकारी बना।
(2) कथा सरित्सागर में महेन्द्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य के विषय में लिखा गया है कि उसने हूणों को पराजित किया था। महेन्द्रादित्य को कुमार गुप्त प्रथम तथा विक्रमादित्य को स्कन्दगुप्त माना गया है । इस ग्रंथ में भी उत्तराधिकार के लिए आन्तरिक युद्ध का भी कोई उल्लेख नहीं है।
| (3) आर्य मन्त्रश्री मूलकल्प के अनुसार कुमारगुप्त के बाद स्कन्दगुप्त ही गद्दी पर बैठा। इस ग्रंथ में कहीं भी इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि इस आन्तरिक युद्ध के बाद या अपने भाईयों को पराजित करने के बाद स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा।
इन सभी प्रमाणों एवं तर्कों के आधार पर यहीं कहा जा सकता है कि एक मात्र कुमारगुप्त प्रथम का वास्तविक उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त ही था उसने सिंहासन प्राप्ति के लिए कोई युद्ध नहीं किया तथा वह शान्तिपूर्ण तरीके से गद्दी पर बैठा।

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