Skandagupta and his Achievements in Indian History

Skandagupta and his Achievements in Indian History

(3) उत्तर प्रदेश - कुमार गुप्त प्रथम का आधिपत्य केवल बंगाल तथा पश्चिमी भारत तक ही सीमित नहीं था वरन् उत्तर प्रदेश में भी इसका स्वामित्व स्थापित था। इसकी पुष्टि इस प्रदेश के विभिन्न स्थानों से मिले अभिलेखों से होती है। उत्तर प्रदेश में गढ़वा और मनकुवर (प्रयाग) तथा करम दण्डा (फैजाबाद) में मिले अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त ने इस प्रदेश के कुशल प्रशासन हेतु पृथ्वीषेण नामक व्यक्ति को अवध में गवर्नर नियुक्त रखा था । एलन महोदय के मतानुसार कुमार गुप्त प्रथम की मयूर शैली की चाँदी की मुद्राओं से गंगा की घाटी पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है।
(4) मध्यप्रदेश- डॉवी.सी. पाण्डेय का कथन है कि यहाँ कुमारगुप्त ने सर्वप्रथम अपने नाम की चाँदी की मुद्राएं चलाई । इन पर उसने गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण कराई।

दक्षिण पथ–

अनेक विद्वान इतिहासकारों का मानना है कि कुमार गुप्त के अधीन नर्मदा नदी के दक्षिण का कुछ भाग भी था। डॉ. वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि ‘ऐरा प्रतीत होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने नर्मदा नदी के दक्षिण में अपना राज्य विस्तार करने की कोशिश की और प्रारम्भ में उसे कुछ सफलता भी मिली उसकी कुछ चाँदी की मुद्राएं जैकूटक नरेशों की मुद्राओं से मिलती जुलती हैं। इन मुद्राओं को आधार बनाकर ही एलन महोदय ने यह मत प्रतिपादित किया है कि कुमार गुप्त ने त्रेकूटको को परास्त करके उनको दक्षिणी गुजरात से खदेड़ दिया था। आगे डॉ सी.सी. पाण्डेय लिखते हैं कि कुमार गुप्त की 1395 चॉदी की मुद्राएं सतारा जिले में सनन्द नाम के स्थान पर प्राप्त हुई हैं और 13 मुद्राएं बरार में एलिचपुर में मिली हैं। इन सभी मुद्रा साक्ष्यों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कुमार गुप्त ने दक्षिण विजय का अभियान भी चलाया होगा। डॉ. राय चौधरी के मतानुसार उसकी व्याघ्र शैली की मुद्राएं भी सम्भवतः नर्मदा नदी के दक्षिण में उसके राज्य विस्तार की सूचना देती विद्वान इतिहासकारों के उपर्युक्त विवरण से यह कहा जा सकता है कि कुमार गुप्त प्रथम एक विस्तृत साम्राज्य का सम्राट था। उसके साम्राज्य में बंगाल से लेकर पश्चिम मे सौराष्ट्र तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था।

कुमार गुप्त के साम्राज्य विस्तार के स्रोत

 डॉ. नाहर का कथन है कि ‘कुमार गुप्त प्रथम के सिक्कों और अभिलेखों का विस्तार बंगाल से लेकर साराष्ट्र तक तथा हिमालय से लेकर नर्मदा तक है जिससे प्रमाणित होता है कि उसने अपने पिता द्वारा अधिमत साम्राज्य को सुरक्षित रखा और एक विशाल राज्य पर शासन किया था। डॉ. उपेन्द्र ठाकुर का कथन है कि हमें उसके अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं का कुछ भी पता नहीं लगता परन्तु शिलालेखों के प्राप्ति स्थानों से उसके राज्य विस्तार का बहुत कुछ पता चल जाता है। मन्दसौर शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह चारों समुद्रों की चंचल लहरों से घिरी हुई पृथ्वी पर शासन करता था। उसका राज्य सौराष्ट्र से बंगाल तक फैला था । उसके चॉदी के सिक्के एलिचपुर तथा ब्रह्मपुरी (कोल्हापुर) में भी मिले। हैं। इससे दक्षिण पश्चिम में गुप्त प्रभाव का संकेत मिलता है पर यह सिद्ध नहीं हो पाया है। कि उन क्षेत्रों पर उसने कोई विजय प्राप्त की थी।
अश्वमेघ यज्ञ मुद्रा साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि कुमार गुप्त ने अपने पूर्वजों की तरह यज्ञ किया था। प्राप्त अभिलेखों में तो इस प्रकार के यज्ञों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। कुमार गुप्त प्रथम के अश्वमेघ शैली के सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ किया था । कुमारगुप्त पृथम के कुछ सोने के सिक्के मिले हैं। इनमें मुख भाग पर सुसज्जित यज्ञ का घोड़ा यज्ञस्तूप के सामने अंकित प्रदर्शित किया गया है इसी ओर सम्राट का नाम भी उत्कीर्ण है दूसरी ओर उसकी उपाधि अश्वमेघ महेन्द्र अंकित है।

कुमारगुप्त प्रथम एवं अश्वमेघ यज्ञ 

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कुमारगुप्त प्रथम ने यह अश्वमेघ यज्ञ असम विजय के उपलक्ष में किया । डॉ. राधा कुमुद मुकर्जी के अनुसार ‘कुमारगुप्त प्रथम ने अपनी असम विजय की स्मृति में अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। अपनी कुछ मुद्राओं पर वह गेंडा का आखेट करता हुआ प्रदर्शित किया गया है। गैंडे असम में पाये जाते हैं। इससे लगता है कि इस प्रदेश को जीत लेने के पश्चात् इसने इस कोटि की मुद्रा प्रचलित की। लेकिन कुछ इतिहासकार डॉ. राधा कुमुद मुकर्जी के उपरोक्त कथन के बारे में आपत्तिजनक तरीके से कहते हैं कि किसी भी लेख में कुमार गुप्त की विजयों और अश्वमेघ यज्ञ का वर्णन नहीं मिलता। डॉ. मुकर्जी के मत की पुष्टि किसी भी ऐतिहासिक साक्ष्य से नहीं होती ऐसी स्थिति में यह कहना अधिक तर्कसंगत लगता है कि उसने सम्भवतः अपने पितामह (समुद्रगुप्त) के अनुकरण में या राजनीतिक दिखावे के लिए अथवा पुण्य कमाने के लिए ही ऐसा किया हो।

कुमारगुप्त प्रथम की उपाधियाँ—

मुद्राओं के ऊपर कुमार गुप्त प्रथम की कई उपाधियाँ अंकित हैं जैसे श्री महेन्द्र अजीत महेन्द्र, सिंह महेन्द्र, अश्वमेघ महेन्द्र, श्री महेन्द्रसिंह, महेन्द्र कुमार, महेन्द्रकल्प, सिंह विक्रम, व्याघ्रबल पराक्रम, श्री प्रताप महेन्द्र कर्म एवं महेन्द्रादित्य । इन उपाधियों से कुमारगुप्त के चरित्र तथा वैयक्ति गुणों का परिचय मिल जाता है।
मुद्राएं कुमार गुप्त प्रथम ने समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के अनुकरण एवं आदर्श पर कुछ मुद्राओं का प्रचलन किया जिनमें धनुर्धर शैली, खड्गधारी शैली, अश्वमेघ शैली, अश्वारोही शैली, सिंहघातक शैली, व्याघ्रशैली, मयूरशैली, प्रताप शैली, गजारोही शैली, गैंडा हन्ता शैली, छत्र शैली, वीणाशैली, राजारानी शैली आदि प्रमुखतया वर्णित हैं। डॉ. अल्टेकर का कथन है कि ये उस समय की प्रिय वर्ग की मुद्राएं थी । इनकी तौल 121 ग्रेन से । 144 ग्रेन तक है। स्वर्ण मुद्राओं में खड्गधारी प्रकार के कुल 18 सिक्के प्राप्त हैं इनके भाग पर प्रभामण्डलयुक्त सम्राट दाहिने हाथ से वेदी पर आहुति छोड़ रहा है उसका हाथ तलवार की मूठ पर है पृष्ठ भाग पर लक्ष्मी कमल पर आसीन है। दूसरी गजारोही प्रल की कुल 4 मुद्राएं प्राप्त हैं इनमें से तीन बयानानिधि तथा एक बंगाल में महानद से मिली है। गजारूढ़ सिंह निहंता प्रकार की 5 मुद्राएं उपलब्ध हैं। कला की दृष्टि से गैंडा निहंता प्रकार की मुद्राएं अधिक महत्त्वपूर्ण है। जिस पर घोड़े पर राजा तलवार से गैंडे को मार रहा है। इनके पृष्ठ भाग पर मकर वाहिनी गंगा की आकृति उत्कीर्ण है ।

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