कुमार गुप्त प्रथम की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।

कुमार गुप्त प्रथम की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।

अश्वारोही प्रकार की मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर एक देवी मोर को खिलाती हुई अंकित है। ऐसे 13 सिक्के मिले हैं जिनके मुख भाग पर राजा मोर को खिलाता हुआ दिखाया गया है। पृष्ठ भाग पर कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर आरूढ़ हैं। कुमार गुप्त की ताम्रमुद्राओं का अल्टेयर महोदय ने चार भागों में वर्गीकरण किया है। छत्र प्रकार, धनर्धारी प्रकार खड़ा, राजा और वेदी प्रकार। डॉ. वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि ‘कुमार गुप्त का शासनकाल समृद्धिपूर्ण भी था । यही कारण है कि उसने बड़ी संख्या में मुद्राएं प्रचलित कीं । बयाना मुद्रा ढेर में केवल कुमार गुप्त की ही 623 मुद्राएं मिली हैं। इनमें से कुछ मुद्राएं बिल्कुल नई शैली की हैं। इनमें विशेष महत्त्वपूर्ण है। मयूर शैली की मुद्रा । यह कदाचित् समस्त गुप्त मुद्राओं में सर्वाधिक सुन्दर है। सर्वप्रथम मध्य प्रदेश में उसने मयूर शैली की चाँदी की मुद्राएं भी चलायी।

कुमार गुप्त प्रथम की उपाधियाँ

पुष्यमित्रों का विद्रोह यद्यपि कुमारगुप्त के शासनकाल का पूर्वार्द्ध सुख एवं शान्ति का सूचक था परन्तु उसके शासनकाल से अन्तिम दिनों में गुप्त साम्राज्य पर विपत्ति के बादल मंडराने लगे । इसका प्रमाण हमें उसके पुत्र स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से मिलता है जिसमें पुष्यमित्रों के आक्रमण का वर्णन है, जिन्होंने अपने आक्रमण से गुप्तवंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया । पुष्यमित्रों का सामना करने के लिए कुमारगुप्त प्रथम ने अपने योग्य पुत्र स्कन्दगुप्त को भेजा । इसे स्थिर करने में स्कन्दगुप्त को कठोर प्रयास करना पड़ा। एक बार तो पुष्यमित्रों की बाढ़ को रोकने के लिए उसे पूरी रात्रि युद्धभूमि में ही बितानी पड़ी और अन्त में उसने उनके विद्रोह को दबा दिया । पुष्यमित्र कौन थे? कहाँ के रहने वाले थे। यह प्रश्न अभी तक स्पष्ट रूप से तय नहीं हो सके हैं। लेकिन प्रायः निश्चित सा ही है कि उन्होंने नर्मदा नदी के किनारे ही सर्वप्रथम विद्रोह किया था। राय चौधरी का अनुमान है कि ये माहिष्मती से लेकर मेकला प्रदेश के स्वामी थे । विष्णु पुराण के अनुसार पुष्यमित्र नर्मदा नदी के मुहाने के पास मेकला में शासन करते थे। डॉ. वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि वायु पुराण से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र जाति नर्मदा नदी के तट पर मेकल प्रदेश में रहती थी । बालाघाट ताम्रपत्र के अनुसार वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन के अधिकार में मेकल प्रदेश भी था। सम्भव है। कि पुष्यमित्रों ने वाकाटकों की सहायता से ही गुप्त साम्राज्य से संघर्ष किया हो ।'

कुमार गुप्त की शासन व्यवस्था

 (1) केन्द्रीय शासन-

राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी सम्राट था। उसके शासन व्यवस्था संचालन में मंत्रणा देने के लिए मंत्री होते थे । यद्यपि सभी शक्तियों का स्रोत सम्राट था तथापि मंत्री परिषद् की सलाह काफी वजन रखती थी और सम्राट निरंकुश नहीं था । विभिन्न विभागों के संचालन के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। युद्ध के समय सभी उच्च पदाधिकारियों को सैनिक सेवाएं देनी पड़ती थी । मंत्रियों का पद पैतृक था किन्तु योग्यता के आधार पर चयन होता था। शासन एकतंत्र प्रणाली पर आधारित था ।।

(2) प्रान्तीय शासन 

कुमार गुप्त ने शासन की सुविधा के लिए अपने साम्राज्य को अनेक इकाइयों में विभाजित कर रखा था। सबसे बड़ी इकाई प्रान्त था इन प्रान्तों का शासन सामन्तों को सौंपा जाता था जिन्हें राज्यपाल के रूप में सम्बोधित किया जाता था। इस पद पर प्रायः राजकुमार एवं साम्राज्य के बड़े ही उच्च पदाधिकारी होते थे। कुमार गुप्त के अभिलेखों से विभिन्न क्षेत्रों या प्रान्तों में नियुक्त राज्यपालों के नामों का उल्लेख मिलता है। इनमें घटोत्कच गुप्त पूर्वी मालवा में बन्धुवर्मा पश्चिमी मालवा में, चिरातदत्त पुण्डुवर्धन उत्तरी बंगाल में राज्यपाल या प्रान्तपालों के पद पर कार्य करते थे। राजा का इन पर पूर्ण नियंत्रण होता था । यह सम्राट की आज्ञानुसार ही शासन की व्यवस्था करते थे। प्रान्तों से छोटी इकाई प्रदेश कहलाती थी । जो आजकल की कमिश्नरी के बराबर होती थी और इससे छोटी इकाई विषय कहलाती थी जो जिले बराबर होती थी विषयों का शासन विषयपति, कुमारामात्य अथवा महाराज करते थे। पूर्वी भारत में विषय को वीथियों में विभाजित किया और वीथि गाँवों में बंटे हुए थे।

(3) स्थानीय शासन-

(अ) गाँवों का शासन-

गाँव साम्राज्य की सबसे छोटी इकाई था। ग्राम का मुख्य अधिकारी ग्रामिक, महत्तर अथवा भोजक होता था । डॉ. रामशरण शर्मा के अनुसार इस काल में ग्राम प्रधान अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। वह गाँव का काम-काज श्रेष्ठिजनों की सहायता से सँभालता था । हर गाँव के प्रशासन से प्रमुख स्थानीय व्यक्ति जुड़े हुए थे। उनकी अनुमति के बिना कोई क्रय विक्रय नहीं हो सकता था

(ब) नगरों का शासन 

कुमार गुप्त के काल में गाँवों की तरह नगरों के स्थानीय प्रशासन की अलग व्यवस्था थी। नगर शासन से संबंध में दामोदरपुर (बंगाल) के ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है कि विषयों की राजधानी में विषयपति की सहायता देन गक परिषद् होती थी जिसके निम्नलिखित सदस्य थे।
(1) नगर व्यापारियों की श्रेणियों या बैंकों के प्रमुख ।
(2) मुख्य व्यापारी (सार्थवाह)
(3) प्रथम कुलिक (अथवा शिल्प श्रेणियों के प्रधान)
(4) प्रथम कायस्थ (या विषय के मुख्य लेखक)
(5) भूमि का मूल्य निर्धारण करने वाला (जिसे पुस्तपाल कहा जाता था)
इस परिषद के सभी कार्यों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती परन्तु भूमि की खरीददारी, बिक्री, परिवर्तन इत्यादि इसकी सहायता से होती थी । विषयपति के स्थायी स्थान को अधिष्ठान तथा कार्यालय को अधिकरण कहा जाता था। इस सामूहिक संगठन के अतिरिक्त नगरों में शिल्पकारों, बेकरों, व्यापारियों ने स्वयं को अपनी अपनी पृथक श्रेणियों में संगठित किया जाता था। वे अपने सदस्यों के मामलों की देखभाल कर सकते थे और श्रेणी की प्रथाओं और नियमों का उल्लंघन करने वालों को दण्ड दे सकते थे।

धार्मिक नीति 

कुमार गुप्त की धार्मिक नीति परम्परागत सहिष्णुता की थी। उसके शासन काल में विष्णु, शिव, शक्ति, कार्तिकेय, सूर्य, बुद्ध तथा जिन के उपासक विद्यमान थे।

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