कुमारगप्त प्रथम के पश्चात् उत्तराधिकार की समस्या पर एक निबंध लिखिये।
कुमारगुप्त प्रथम का देहावसान 455 ई. के लगभग हुआ और अपने इस विशाल साम्राज्य को अपने दोनों पुत्रों पुरुदत्त और स्कन्दगुप्त के लिए छोड़ गया इनमें से पुरुदत्त ज्येष्ठ पुत्र था। अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात् इन दोनों पुत्रों में से कौन सिंहासन पर बैठा। इस पर विद्वान इतिहासकारों में तीव्र मतभेद रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र ही होता है और इसी अधिकार के कारण ज्येष्ठ होने के नाते पुरुदत्त ही गद्दी पर बैठा। परन्तु कुछ विद्वान जिनमें डॉ. मजूमदार और श्री गांगुली का मत है कि कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसके दो पुत्रों पुरुदत्त और स्कन्दगुप्त में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ इस युद्ध में स्कन्दगुप्त विजयी हुआ और सिंहासन पर बैठा । परन्तु एक अन्य विद्वान जिनमें कि डॉ. पी.एल. गुप्ता को रखा जा सकता है इनका मत है कि कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात् न तो पुरुदत्त और न स्कन्द गुप्त ही गद्दी पर बैठा वरन् घटोत्कच गद्दी पर बैठा। यह मत विचार योग्य नहीं समझा जाता है। डॉ. सिन्हा भी उत्तराधिकार के लिए हुए संघर्ष पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि स्कन्दगुप्त की तुलना में पुरुदत्त को उत्तराधिकार का अधिक अधिकार प्राप्त था।कुमारगप्त प्रथम के पश्चात् उत्तराधिकार की समस्या
अत: यह कल्पना करना स्वाभाविक है कि कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् वही राजा बना होगा। लेकिन उसके अधिक योग्य सौतले भाई स्कन्दगुप्त ने शीघ्र ही उसे सिंहासन से उतार दिया। अत: डॉ. मजूमदार की तरह यह भी उत्तराधिकार के लिए हुए संघर्ष को स्वीकार करते हैं। अतः जो विद्वान डॉ. आरसी. मजूदार के इस कथन से सहमत हैं कि कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् स्कन्दगुप्त शान्तिपूर्ण ढंग से राज्याधिकारी नहीं हुआ। उसे सिंहासन प्राप्त करने के लिए अपने भाई पुरुदत्त के साथ युद्ध करना पड़ा। वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं। | मत के समर्थन में प्रमुख साक्ष्य इस प्रकार है-(i) भीतरी स्तम्भ लेख से यह जानकारी प्राप्त होती है कि कुमार गुप् प्रथम के मरने के तुरन्त बाद ही गुप्त साम्राज्य पर पुनः विपत्ति के बादल मँडराने लगे और वंश लक्ष्मी लप्त होने लगी। डॉ. राजबली पाण्डेय का मत है कि सम्भवत: पुष्यमित्रों, हूणों और गुप्तों के अन्य आन्तरिक शत्रुओं ने साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर दिया था। स्कन्दगुप्त अपने भजबल से शत्रुओं को पराजित कर आंखों में आंसू भरकर प्रतीक्षा करती हुई अपनी माता के पास उसी तरह गया जिस तरह कंस को मारने के बाद कृष्ण देवकी के पास गये थे। | इस लेख के आधार पर डॉ. मजूमदार ने यह अनुमान लगाया है कि वंश लक्ष्मी को विचलित करने वाले शत्रु पुरुदत्त और उसके समर्थक ही रहे होंगे, उन्होंने कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् राजसिंहासन को प्राप्त करने की चेष्टा की और स्कन्दगुप्त की माता को बन्दी बना लिया था किन्तु कालान्तर में स्कन्दगुप्त ने पुरुदत्त को परास्त कर राजसिंहासन प्राप्त किया और अपनी माता को बन्दीगृह से मुक्त किया।
इसी तरह इस लेख के आधार पर दिनेशचन्द्र सरकार का कथन है कि इस युद्ध में स्कन्द गुप्त के विरुद्ध सम्भवत: उसके किसी मामा ने भाग लिया होगा ।
| (ii) भीतरी स्तम्भ लेख और पुरुदत्त के उत्तराधिकारियों के लेखों में पुरुदत्त की माता का नाम महादेवी अनन्तदेवी बतलाया गया है । सम्भवतः अनन्तदेवी ही कुमारगुप्त की प्रधान रानी थी और इसलिए उसका पुत्र पुरुदत्त ही सिंहासन का वास्तविक उत्तराधिकारी था और उसे परास्त कर ही स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा होगा।
| (iii) बिहार स्तम्भ लेख और भीतरी स्तम्भ लेख में स्कन्दगुप्त को कुमार गुप्त प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि कुमार गुप्त के कम से कम दो पुत्र थे और दोनों ने ही राज्य किया। पुरुदत्त को परास्त करके ही स्कन्दगुप्त ने राज्य प्राप्त किया था।
(iv) जूनागढ़ अभिलेख से यह स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त अपने शत्रुओं को पराजित करके सिंहासन पर बैठा । लेख के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये शत्रु पुरुदत्त एवं उसके समर्थक ही थे ।
(९) गिरिनार (जूनागढ़) लेख में यह वर्णन है कि राजलक्ष्मी ने सभी राजपुत्रों को छोड़कर स्कन्द का वरण किया। इस लेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राजसिंहासन की प्राप्ति के लिए अनेक प्रतिद्वन्द्वी रहे होंगे और इन प्रतिद्वन्द्रियों के पराजित होने पर ही राजलक्ष्मी ने स्कन्दगुप्त का वरण किया होगा।
(vi) बिहार के स्तम्भ लेख में स्कन्द गुप्त को तथा भीतरी राजमुद्रा वाले लेख में पुरुदत्त को तत्पादानुध्यात (उनके चरणों का उपासक) कहा गया है। इससे भी स्पष्ट होता है। कि दोनों ही अपने को कुमार गुप्त का वैधानिक उत्तराधिकारी मानते थे और दोनों में सिंहासन के लिए युद्ध होना अनिवार्य था।
(vii) पुरुदत्त के भीतरी राजमुद्रा वाले लेख में स्कन्दगुप्त का नाम नहीं आया है और इसी तरह बिहार के स्तम्भ लेख में पुरुदत्त को भुला दिया गया है। इन लेखों से यह प्रतीत होता है कि इन दोनों में शत्रुता रही होगी और यह शत्रुता उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर ही हुई होगी। | (viii) स्कन्द गुप्त की एक स्वर्ण मुद्रा पर उसे सैनिक वेशभूषा में दिखाया गया है। और लक्ष्मी अपनी अंजली से उसे कुछ भेंट करती हुई दिखाई गई है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि स्कन्दगुप्त ने युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित करके सिंहासन प्राप्त किया होगा।
(ix) कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कन्दगुप्त के द्वारा उत्कीर्ण कराये गये अभिलेखों में स्कन्दगुप्त की माता का नाम नहीं दिया गया है लेकिन भीतरी राजमुद्रा वाले लेख में पुरुदत्त की माता का नाम अनन्तदेवी ही नहीं दिया गया है वरन् उसे महादेवी भी कहा गया है। इससे अनुमान लगाया गया है कि स्कन्दगुप्त की माता महादेवी राजमहिषी नहीं थी। अतः इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि स्कन्दगुप्त राजसिंहासन का उत्तराधिकारी नहीं था और उसने कालान्तर में पुरुदत्त को अपने भुजबल से परास्त कर सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया। भीतरी अभिलेख के एक अंश के आधार पर बसाक का कहना है कि स्कन्दगुप्त की माता शुद्रा थी। अत: उसने अपने अभिलेखों में अपनी माता का उल्लेख नहीं किया। शटा का पुत्र होने के कारण स्कन्दगुप्त राजसिंहासन का अधिकारी नहीं था।
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