चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन कीजिये?
अशोक की भाँति वह अपनी जनता के दुःख दर्दो को सुनने के लिए हमेशा उत्सुक रहता था। उसने प्रशासन की कुशलता को बढ़ान के लिए अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों, विषयों एवं ग्रामों में विभक्त किया, सरकारी कर्मचारियों को निश्चित वेतन दिये तथा रिश्वत खोरी को नहीं पनपने दिया। उसने अपनी सहायता के लिए अनेक मंत्रियों को नियुक्त किया। उसने अपनी जनता को कुशल शासन एवं यथा सम्भव पूर्णशक्ति प्रदान की। उसके काल में मार्ग तथा सड़कें सुरक्षित थी । उसकी उदार नीतियों संरक्षण एवं प्रोत्साहन के कारण उसके शासन काल में न केवल भारत में बौद्धिक जागृति हुई अपितु उसके साथ ही कला कौशल में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति सम्भव हो सकी । इसका सबसे प्रबल साक्ष्य उस काल में उस द्वारा प्रसारित अनेक मुद्राएं और उन पर उत्कीर्ण आकृतियाँ हैं। सम्भवतः हिन्दू धर्म से सम्बन्धित विशाल साहित्य तथा महाकाव्यों को समुचित रूप इसी काल में दिया जा सका।(4) विद्या प्रेमी के रूप में चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन -
चन्द्रगुप्त द्वितीय एक विद्या प्रेमी था। उसके दरबार में राजकवियों का जमघट लगा रहता था । महाकवि कालिदास विक्रमादित्य के दरबार को अपनी उपस्थिति से अलंकृत करते रहे । चन्द्रगुप्त का वीरसेन नामक मंत्री व्याकरण, न्यायमीमांसा और योग में निपुण तथा कवि भी था। अमरसिंह भी इस सम्राट के दरबार की महान् विभूति था । उसने भी व्याकरण की रचना करायी। उसने चित्रकला, वास्तुकला, धातुकला एवं संगीतकला को प्रोत्साहन दिया। इस महान् सम्राट के राज्यकाल में संस्कृत भाषा ने बड़ी उन्नति की थी । इस काल में कला की भी बड़ी उन्नति हुई । देहली में कुतुबमीनार के पास लौह की जो अद्भुत लाट खड़ी है वह इसी काल में बनी थी। इससे सिद्ध होता है कि सम्राट विद्वानों और कवियों का संरक्षक था। उसके सिक्कों पर तथा समस्त शिलालेखों पर उत्कीर्ण संस्कृत छन्दों से उसका संस्कृत के प्रति अनुराग का पता चलता है। |(5) धार्मिक सहिष्णुता --
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव धर्म का अनुयायी था। किन्तु वह धर्म सहिष्णु था । डॉ. राय चौधरी उसकी उदार धार्मिक नीति से प्रभावित होकर कहते हैं कि “वह स्वयं कट्टर वैष्णव था । लेकिन दूसरे सम्प्रदायों के अनुयायियों को भी उसने राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया।” वह बड़ा उदार था तथा किसी धर्म के प्रति द्वेषी नहीं था, उसने कभी भी अपने धर्मावलम्बियों को कष्ट नहीं दिया । इतना ही नहीं उसने अन्य धर्म के उपासकों को दान भी दिया । सरकारी नौकरियों के द्वार सभी धर्मों के लोगों के लिए खुले हुए थे । निसन्देह उसका सेनापति आभ्रकार्दव बौद्ध धर्मावलम्बी था तथा युद्ध और शान्ति का मंत्री वीरसेन शिव का परम भक्त था । उदयगिरि अभिलेख से प्रकट होता है कि उसने शिव की उपासना हेतु एक गुफा का निर्माण कराया था। चीनी यात्री फाह्यान ने भी इस महान् सम्राट की दानशीलता एवं धर्म सहिष्णुता की प्रशंसा की है।संक्षेप में कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् शासक था। जिसके राज्य काल में भारत ने चहुंमुखी उन्नति की थी। डॉ. विसेन्ट स्मिथ के कथनानुसार “चन्द्रगुप्त द्वितीय एक सशक्त और प्रचण्ड शासक था । एक विस्तृत साम्राज्य की वृद्धि और उसके प्रशासन के लिए सुयोग्य था। उसकी उपाधियाँ उसकी वीरता तथा पराक्रम की परिचायक हैं।” डॉ. मजूमदार के अनुसार “चन्द्रगुप्त द्वितीय ने राजनैतिक महान्ता और सांस्कृतिक पुनर्जीवन के नवीन युग को उन्नत स्थिति तक पहुँचाया तथा लोक हदय में अपना स्थान बना लिया। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने विलय कार्य आरम्भ किया और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उसे सम्पूर्ण किया। शान्तिमय और सुगठित विशाल साम्राज्य जो उसने अपने उत्तराधिकारी को सौंपा वह एक महान् सेनानी और राजनीतिज्ञ के ही नहीं एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के प्रयत्नों का भी परिणाम था ।
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