गलद्दानगण्डं मिलद्भृषण्डं, चलच्चारुशुण्डं जगत्त्रााणशौण्डम्।
कनद्दन्तकान्तं विपद्भचण्डं, शिवप्रेमपिण्डं भजे वक्रतुण्डम्।।1।।
मैं ऐसे वक्रतुण्ड, टेढ़े मुख वाले गणेश जी का भजन करता हूँ, जिनके मण्डस्थल से गिरते हुए मदजल में भ्रमरों का समुदाय मंडरा रहा है, निरन्तर हिलता हुआ जिनका शुण्डादण्ड संसार की रक्षा करने में सर्वथा सावधन है, जिनके दांतों की कान्ति अत्यन्त सुन्दर है, और जो भयंकर विपत्तियों को भी नष्ट करते हैं, इन सब गुणगणों से विशिष्ट ये गणेश जी भगवान् शिव के प्रेमपात्र हैं।
अनाद्यन्माद्यं परं तत्त्वमथ, चिदाकारमेकं तुरीयं त्वमेयम्।
हरिब्रमृग्यं परब्ररूपं, मनोवागतीतं मह: शैवमीडे।।2।।
मैं भगवान् शंकर संबंधी उस परम तेज की स्तुति करता हूँ, जो अनन्त होते हुए भी उत्पत्ति व संहार की दृष्टि से सर्वप्रथम तथा सबसे अन्तवाला तत्त्व है, और जो चित्स्वरूप अद्वितीय होते हुए भी अज्ञान–माया, जीव व ईश्वर की गणना की दृष्टि से तुरीय अर्थात् चतुर्थ तत्त्व है, यह सब होते हुए भी अमेय अनिर्वचनीय है, किन्हीं से उसका निर्वचन नहीं हो सकता है। ब्रह्मा व विष्णु भी जिस तत्त्व का अनुसन्धन करते हैं, ऐसा परब्रस्वरूप यह तत्त्व मन व वाणी का विषय नहीं है।
स्वशक्त्यादिशक्त्यन्तसिहासनस्थं, मनोहारिसर्वारत्नोरुभूषम्।
जटाहीन्दुगास्थिशम्पाकमौल, पराशत्तिफमित्रां नुम: पवक्त्राम्।।3।।
हम प ाननरूप उस भगवान् शंकर को नमस्कार करते हैं, जो अपनी ही अनन्त शक्ति रूप सहासन मे विराजमान हैं, जिनके सुन्दर अंग, रत्नों के आवरणों से सुशोभित हैं, और जिनके मस्तक पर जटा, सर्प, अध्र्चन्द्र व गादि विराजमान है, जो हमेशा पराशक्ति से समन्वित रहते हैं।
शिवेशानतत्पूरुषाघोरवामादिमि: पचभि हृर्न्मुखै: षड्भिरै:।
अनौपम्यषट्त्रिाशलं तत्त्वविद्यामतीतं परं त्वां कथं वेत्ति को वा।।4।।
हे भगवान्! शिव, ईशान्, तत्पुरुष, अघोर, वामादि पाँच प्रमुख नाम रूप मुखों से मुक्त तथा छै वेदो से युक्त, शैवागम के षट्त्राशत् तत्त्व सन्दोह अर्थात् जो छत्तीस तत्त्व हैं, उनसे भी परे ऐसे परमश्रेश् आपको कोई साधक या योगी कैसे जान सकता है, अर्थात् परम दुज्ञेर्य आपका स्वरूप सर्वसाधरण सुलभ नहीं है।
प्रवालप्रवाहप्रभाशोणमध्, मरुत्वन्मणिश्रीमह: श्याममध्र्म्।
गुणस्यूतमेतद्वपु: शैवमन्त:, स्मरामि स्मरापत्तिसंपत्तिहेतो:।।5।।
हे भगवन्! आपका आधा शरीर तो प्रवालमणि की चंचल प्रभा के समान लाल है, अर्थात् आधे शरीर में आदि शक्तिस्वरूपा जगत्जननी पार्वती जी विराजमान है और आधा शरीर मरकतमणि की सुन्दर कान्ति के समान नील वर्ण का है, इस प्रकार श्वेत व श्याम दो गुणों से समन्वित आपके शरीर का मैं कामादिसन्ताप की शान्ति के लिए हृदय से स्मरण करता हूँ।
स्वसेवासमायातदेवासुरेननमन्मौलिमन्दारमालाभिषित्तफम्।
नमस्यामि शम्भो पदाम्भोरुहं ते, भवाम्भोध्पिोतं भवानीविभाव्यम्।।6।।
हे शम्भो! मै आपके उन चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ, जो चरण आप अपने सेवा अवसर में आए हुए देवता, असुर व इन्द्रादि के कुछ झुकी हुई मस्तक में स्थित मन्दार मालाओं के पराग से अभियुक्त हैं, इस संसाररूपी सागर को पार करने के लिए जो चरण जहाज के समान हैं, तथा जगत्जननी भवानी जिन चरणकमलों का ध्यान करती रहती हैं।
जगाथ माथ गौरीसनाथ, प्रपानुकम्पिन् विपाखतहारिन्।
मह: स्तोममूतेर्, समस्तैकबन्धै, नमस्ते नमस्ते पुनस्ते नमोस्तु।।7।।
हे जगत् के नाथ! हे मेरे स्वामी! हे गौरीसनाथ! हे शरणागतों पर अनुकम्पा करने वाले! हे विपत्ति से ग्रस्तों के दु:ख को दूर करने वाले! हे समस्त संसार के एकमात्रा बन्धु | तुम्हारे लिए नमस्कार है, तुम्हारे लिए नमस्कार है, पुन: बारंबार तुम्हारे लिए नमस्कार है।
विरुपाक्ष, विेश विादिदेव, त्रायीमूल, शम्भो, शिव त्रयम्बक त्वम्।
प्रसीद स्मर त्रााहि पश्यावमुक्त्यै, क्षमां प्राप्नुहि त्रयक्ष मां रक्ष मोहात्।।8।।
हे विषमलोचन! हे वि ेश! हे विवेक आदि देव! हे वेदत्रायी के मूलकारण स्वरूप! हे शम्भो! हे शिव! हे त्रिालोचन! आप प्रसन्न होवें, जरा मेरा भी ध्यान रखें, मुझे बचायें, मुक्ति के लिए थोड़ा मेरी ओर भी निहारें, आप मेरे लिए क्षमाशील शान्त हो जायें, हे त्रिालोचन, मोह–अज्ञान से मेरी रक्षा करें।
महादेव, देवेश, देवाध्दिेव स्मरारे, पुरारे यमारे हरेति।
ब्रुवाण: यमिाष्यामि भक्त्या भवन्तम्, ततो मे दयाशील, देव, प्रसीद।।9।।
हे महादेव! हे देवेश! हे देवाध्दिेव! हे स्मर–काम के शत्राु! हे त्रिपुरासुर के शत्रु! हे यम के शत्रु! हे सम्पूर्ण पापों को हरण करने वाले हर! इत्यादि नामों का उच्चारण करता हुआ मैं, भक्ति पूर्वक आपका स्मरण करूँगा, तब हे दयालु भगवान्! आप मेरे लिए प्रसन्न हो जायें।
त्वदन्य: शरण्य: प्रपस्य नेति, प्रसीद स्मरेव हन्यास्तु दैन्यम्।
न चेत्ते भवेद्भत्तफवात्सल्यहानि–स्ततो मे दयालो सदा सधि्ेहि।।10।।
हे शम्भो! शरणागत मेरे लिए आपके सिवाय अन्य कोई भी ;देवी देवतादिद्ध शरण देने वाले नहीं है, अत: आप प्रस हो जायें, यह सब समझते हुए आप मेरी मोहजन्य इस दीनता को दूर करें, हे दयालो! यदि आपकी भत्तफवत्सलता में किसी प्रकार की बाध न आती हो, तो पिफर आप हमेशा मेरे मानस में सिहित रहें।
अयं दानकालस्तवहं दानपात्रां,
भवानेव दाता त्वदन्यं न याचे।
भवद्भत्तिफमेव स्थिरां देहि मह्यं,
कृपाशील शम्भो कृतार्थोस्मि तस्मात्।।11।।
हे भगवन्! यही उचित दान का समय है, और दानपात्रा दानयोग्य मैं भी यहाँ उपस्थित हूँ। इस संसार में आपके सिवाय और दाता ही कौन है, इसलिए आपको छोड़कर किसी अन्य देवता या महाराज से मैं याचना भी नहीं करता। हे कृपाशील भगवान्! मुझे अपनी दृढ़भत्तिफ प्रदान करें, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊँ।
पशुं वेत्सि तमेवाध्रिुढ़:,
कलीति वा मूखन ध्त्से तमेव।
द्विजि: पुन: सोपि ते कण्ठभूषा,
त्वदीकृता: शर्व सवेर्पि ध्न्या:।।12।।
हे भगवन्! यदि आप मुझे पशु समझते हैं, तो आप स्वयं पशु पर–बूढे़ बैल पर आरूढ़ हैं अर्थात् वाहनरूप से आप पशु को भी अपनाये हुए हैं, यदि आप मुझे कली दोषयुक्त समझते हैं अर्थात् सदोष समझकर मेरी रक्षाकर मेरी उपेक्षा करते हैं, तो स्वयं आपने कल युक्त चन्द्रमा को शिरोभूषण बनाया है। यदि द्विजिछ चुगलखोर बात बदलने वाला समझकर आप मेरी उपेक्षा करते हैं, तो स्वयं द्विजि सर्पराज को आपने अपने गले लगाया है, अत: आपने जिस किसी रूप में भी जिसको अपनाया है, वह धन्य, धन्य हो जाता है इसलिए हे भगवन्! आप मुझे अवश्य अपनायें।
न शक्रोमि कतु परोहलेशम्, कथं प्रीयसे त्वं न जाने गिरीश।
तथाहि प्रससि कस्यापि कान्ता–सुतोहिणो वा पितृोहिणो वा।।13।।
हे गिरीश! सुना जाता है कि आप कान्ता–द्रोही–सुतद्रोही और पितृद्रोहियों के लिए तक प्रसन्न होते हैं, परन्तु मैं तो किसी के साथ लेशमात्रा भी द्रोह नहीं कर सकता हूँ, तब आप कैसे मेरे लिए प्रसन्न होंगे, अर्थात् आपको प्रसन्न करने के उपाय भी विलक्षण ही हैं, मैं तो उन सभी उपायों को अपना भी नहीं सकता हूँ। अथवा जब आप द्रोह जो कि एक प्रकार का दुर्गुण है, उससे भी प्रसन्न हो जाते हैं, तो फिर निरन्तर भक्तिभाव वाले मेरे लिए क्यों न प्रसन्न होंगे?
स्तुत यानमचा यथावद् विधतुं, भजप्यजानन् महेशावलम्बे।
असन्तं सुतं त्राातुमग्ने मृकण्डोर्यमप्राणनिर्वापणं त्वत्पदाब्जम्।।14।।
हे महेश! मैं शस्त्राविधि् के अनुसार आपकी स्तुति, आपका ध्यान, व आपकी पूजा को न जानता हुआ भी, केवल आपका भजन करता हुआ, महामाया से मार्कण्डेय को भी बचाने वाले आपके चरणकमलों का अवलम्बन ले रहा हूँ।
शिरोदृहिोगशूलप्रमेहज्वरार्शोजरायक्ष्म हिवन्काविषार्तान्।
त्वमाद्यो भिषग्भेषजं भस्म शम्भो, त्वमुघयास्मान् वपुर्लाघवाय।।15।।
हे शम्भो! आप इस भव सागर के आदि वैद्य हैं, और आपकी भस्म सांसारिक व्याधि् के लिए महौषधि् है, अत: आप हमारे स्वास्थ्य लाभ के लिए या स्वस्थता के लिए, सिर, नेत्र, व हृदयादि, संबंधी प्रमेह, ज्वर, यक्ष्मादि, समस्त रोगों को दूर कीजिए।
दरिोस्म्यभोस्मि भग्नोस्मि दूये,
विषण्णोस्मि सोस्मि, खिोस्मि चाहम्।
भवान् प्राणिानामन्तरात्मास्ति शम्भो,
ममाध् न वेत्सि प्रभो रक्ष मां त्वम्।।16।।
हे शम्भो! मैं दरिद्र हूँ, अभद्र अच्छा नहीं हूँ, गिरा हुआ हूँ, दु:खी तथा नष्ट प्राणी हूँ, अतएव पश्चाताप पीडित हूँ, आप सभी प्राणियों के अन्तरात्मा हो, फिर भी मेरी मन की व्यथा को नहीं जानते हैं क्या? अत: हे प्रभो मेरी रक्षा करें।
त्वदक्ष्णो: कटाक्ष: पतेत्रयक्ष यत्रा, क्षणं क्ष्मा च लक्ष्मी: स्वयं तं वृणीते।
किरीटस्पफुरच्चामरच्छत्रामालाकलाचीगचक्षौमभूषा विशेषै:।।17।।
हे त्रिालोचन! जिस मनुष्य के ऊपर आपका कृपाकटाक्ष गिरता है, उसको छत्र, चामर व बहुमूल्य आभूषणों सहित पृथ्वी व लक्ष्मी वरण करती है, अर्थात् आपके कृपादृमिात्र से ही मनुष्य असामान्य वैभव–सम्प–राज्य को प्राप्त कर लेता है।
भवान्यै भवायापि मात्रो च पित्रो,मृडान्यै मृडायाप्यघन्यै मखघ्ने।
शिवा्ग्यै शिवााय कुर्म शिवायै, शवायाम्बिकायै नमस्यम्बकाय।।18।।
हम माता भवानी, तथा पिता भव के लिए, सुख देने वाली मृडानी के लिए, तथा सुख देने वाले मृड के लिए, पाप को नाश करने वाली पार्वती के लिए, तथा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले शंकर के लिए, सुन्दर आँखों वाली मां पार्वती के लिए, तथा सर्वा सुन्दर शिव के लिए नमस्कार करते हैं।
भवद्गौरवं माघुत्वं विदित्वा, प्रमोरक्ष कारुण्यदृ्यानुगं माम्।
शिवात्मानुभावस्तुतावक्षमोहं, स्वशक्त्या कृतं मेपराध्ं क्षमस्व।।19।।
हे प्रभो! आप स्वयं अपने गौरव को, तथा मेरे लघुत्व- छोटेपन को जानकर, करुणापूर्ण दृष्टि का अनुसरण करने वाले मेरी रक्षा करें, हे शिव! मैं स्वयं अपने आत्मस्वरूप आपकी स्तुति करने में असमर्थ हूँ, अत: अपनी शक्ति के मुताबिक जो कुछ भी कर सका हूँ, या आपके गौरव के अनुकूल जो कुछ स्तुति आदि नहीं कर सका हूँ, इस अपराध् के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।
यदा कर्णरध््रं व्रजेत् कालवाहषित्कण्ठघण्टाघणात्कारनाद:।
वृषाध्ीशमारुमारुह्य देवोपवाह्य, तदा वत्स मा भीरिति प्रीणय त्वम्।।20।।
हे शम्भो! जिस समय यमराज के वाहनभूत भैंसे के कण्ठ में लगे हुए भयानक विशाल घण्टे की भयानक आवाज मेरे कानों में आये, तो उसी समय आप देवोपवाहन वृषभराज में आरुढ़ होकर मेरे समीप में आकर "हे वत्स! मत डरो", इस प्रकार से धैर्य वचनो से मुझे आशक्त करें।
यदा दारुणाभाषणाभीषणा मे, भविष्यन्त्युपान्ते कृतान्तस्य दूता:।
तदा मन्मनस्त्वद्पदाम्भोरुहस्थं, कथं निलं स्यामस्तेस्तु शम्भो।।21।।
हे शम्भो! जिस समय यमराज के दूत मेरे सकिट आ जायेंगे, और मैं उनके कठोर वचनों से भयभीत हो जाँउगा, तो उस समय आपके चरणकमलों में लगा हुआ मेरा मन निश्चल कैसे होगा? यमदूतों के उस भयानक भाषण से कहीं विचलित न हो जाय, अत: उस समय इसी मन की स्थिरता के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
यदा दुखनवारव्यथोहं श्यानो, लुठसिि:सुताव्यत्तफवाणि:।
तदा जुकन्याजलालंकृतं ते, जटामण्डलं मन्मनोमन्दिरं स्यात्।।22।।
हे शम्भो! उस समय जब कि मैं किसी असह्य पीडा से पीडित होऊँ, जिसका कि कोई इलाज ही न हो, इस प्रकार के रोग से ग्रस्त हुआ, लेटा हुआ इधर उधर लुड़कते हुए, स्पष्ट वचन बोलने में भी असमर्थ रहूँ, तो उस समय के लिए मेरी यही प्रार्थना है, कि गजल से अलंकृत आपका जटामण्डल मेरे मन के ध्यान का विषय बने, अर्थात् ऐसे समय में जाह्यवीजल से अलंकृत जटामण्डल वाला स्वरूप मेरे मन का मन्दिर बने।
यदा पुत्रामित्राादयो मत्सकासे, रुदन्त्यस्य हा कीदृशीयं दशेति।
तदा देवदेवेश गौरीश शम्भो, नमस्ते शिवायेत्यजस्त्रां ब्रुवाणि।।23।।
हे शम्भो! जब कि मेरे पुत्र मित्र आदि मेरे पास में आकर ‘बडे़ दुःख की बात है कि इस बेचारे की कितनी यह दयनीय दशा हो गई है’ यह कहकर रोवें, तो उस समय हे देवाध्दिेव! गौरीनाथ! शम्भो! मेरी यही प्रार्थना है, कि उस समय भी मैं आपको नमस्कार करता हुआ ‘नम: शिवाय’ यह वचन निरन्तर बोलता रहूँ।
यदा पश्यतां मामसौ वेत्ति नास्मान्, अयं ास एवेति वाचो वदेयु:।
तदा भूतिभूषं भुजवनं, पुरारे भवन्तं स्पफुटं भावयेयम्।।24।।
हे शम्भो! ऐसी स्थिति में जब कि मुझे देखने वाले लोगों में से कोई यह कहे कि यह तो अब केवल मुझको ही जानता है, और किसी को नहीं पहचानता है, अरे! इसका तो अब केवल समय मात्र अवशेष है, तो ऐसी दशा में हे शम्भो, मेरी यही प्रार्थना है, कि मैं आपके भस्म रमाये हुए और भुजों से भूषित स्वरूप का अच्छी तरह ध्यान कर सकूूँ।
यदा यातनादेह संदेशवाही, भवेदात्मदेहे न मोहो महान्मे।
तदा काशशीतांशुसंकाशमीश, स्मारे वपुस्ते नमस्ते स्मरामि।।25।।
हे शम्भो! ऐसी स्थिति में, जब मेरा यह पापी भौतिक शरीर केवल यातना देह का संदेशवाहक बन जाय, अर्थात् यह स्थूल कलेवर शुभाशुभ को भोगने के लिए सूक्ष्म रूप धरण कर ले, और इस पार्थिव देह में जब कोई ममता न रह जाय, उस स्थिति में हे भगवन्! मैं केवल काश कुसुम व चन्द्रमा के समान स्वच्छ आपके स्वरूप का ही स्मरण करूँ, अत: हे स्मरारे! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
यदा पारमच्छायमस्थानभर्जिनै र्वा विहीनं गमिष्यामि मार्गम्।
तदा तं निरुन्ध्न् कृतान्तस्य माग, महादेव? मह्यं मनोज्ञं प्रयच्छ।।26।।
हे शम्भो! जब मैं पूर्वोक्त्त यातना शरीर द्वारा छाया रहित व भयानक जल व जनों से शून्य, परलोक के उस विषम मार्ग पर चलूँगा, तो हे महादेव! उस समय यमराज के उस भयंकर मार्ग को रोककर, गन्तव्य स्थान में पहुँचने के लिये आप मुझे सुन्दर मार्ग प्रदान करें।
यदा रौखाद स्मरेव भीत्या, व्रजाम्यत्रा मोहं महादेव घोरम्।
तदा मामहो नाथ कस्तारयिष्य–त्यनाथं पराध्ीनमध्ेर्न्दुमौले?।।27।।
हे महादेव ! उस समय जबकि मैं रौखादि नारकों के स्मरणमात्र से भयभीत होकर, घने मोह को प्राप्त होऊँ, अहो ऐसे घने मोह के अवसर पर हे नाथ! हे चन्द्रशेखर! अनाथ व पराधीन मुझको कौन तारेगा, अर्थात् सिवाय आपके उस घोर नरक से दूसरा कोई भी पर नहीं लगा सकता है।
यदा श्वेतपत्राायताल्घ्यशत्तफे:, कृतान्ताद् भयं भत्तफवात्सल्यभावात्।
तदा पाहि मां पार्वतीवभान्यं, न पश्यामि पातारमेतादृशं में।।28।।
हे भगवान्! जब विशाल श्वेतच्छत्रा व अलयशक्तिसम्प यमराज से मैं भयभीत हो जाऊँ, तो हे पार्वतीनाथ! उस समय अपनी भक्तवत्सलता के भाव से आप मेरी रक्षा करें, क्योंकि ऐसे विपत्ति के समय में, आपके सिवाय अन्य किसी को भी इस प्रकार का अपना रक्षक नहीं देख रहा हूँ।
इदानीमिदानीं मृतिमेर् भवित्राीत्यहो संततं चिन्तया पीडितोस्मि।
कथं नाम मा भून्मृतौ भीतिरेषा, नमस्ते गतीनां गते नीलकण्ठ।।29।।
हे भगवन्! जब मैं यह सोचता हूँ कि अब सन्निकट ही मेरी मृत्यु होने वाली है, तो इस चिन्ता से मैं एकदम दु:खी हो जाता हूँ, हे नीलकण्ठ! मृत्यु के समय यह भय कैसे दूर होगा, अर्थात् मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे उस समय यह भय न आ सके, क्योंकि आप तो सभी को शरण देने वाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार है।
अमर्यादमेवाहमाबालवृस्था, हरन्तं कृतान्तं समीक्ष्यास्मि भीत:।
मृतौ तावका्घ्रयब्जदिव्यप्रसादाद् भवानीपते निर्भयोहं भवानि।।30।।
हे भगवन्! मैं नियमरहित या क्रमरहित यमराज की इस बालक युवावस्था(की हरण क्रिया) को देखकर अत्यन्त भयभीत हूँ, अर्थात् मृत्यु के यहाँ ज्येश् व कनिष्ठ का, निगुर्ण व गुणी का, धनी व गरीब के विषय में कोई विचार नहीं है, जब चाहे जिस किसी का भी हरण कर ले, अत: हे भवानीपती! ऐसे निरविवेक मृत्यु के अवसर पर आपके चरणकमलों के दिव्य प्रसाद से मैं निर्भय हो जाऊँगा।
जराजन्मगर्भाध्विासादिदु:खान्यसह्यानि जह्यां जगाथ, देव।
भवन्तं विना मे गतनैव शम्भो, दयालो न जागख क वा दया ते।।31।।
हे जगन्नाथ! हे शम्भो! आपकी कृपा से मैं जरा, जन्म, गर्भवासादि असह्य दु:खों से छूट जाऊँगा। हे शम्भो! आपके बिना मेंरी कोई गति शरण आदि नहीं है, हे दयालो! यह सब देखते हुए भी इस शरणागत के प्रति आपके चित्त में दयाभाव नहीं आता क्या?
शिवायेति शद्वो नम: पूर्व एष, स्मरन् मुत्तिफकृत्मृत्युहा तत्त्ववाची।
महेशान मा गान्मनस्तो वचस्त:, सदा मह्यमेतत्प्रदानं प्रयच्छ।।32।।
हे शम्भो! नम: पूर्वक शिवाय अर्थात् ‘नम: शिवाय’ यह शब्द यदि किसी की स्मृति का विषय बनाता है तो मुक्ति प्रदान करने वाला है, और मृत्यु को दूर करने वाला है, तथा परमार्थ तत्त्व का वाचक भी है, हे महेश्वर! आप मेरे लिए सदा ऐसा वरदान दें कि ‘नम: शिवाय’ यह शब्द मेरे मन से व वाणी से कभी भी दूर न रहे।
त्वमप्यम्ब मां पश्य शीतांशुमौलिप्रिये भेषजं त्वं भवव्याध्शिान्तौ।
बहुक्लेशभाजं पदाम्भोजपोते, भवाब्धै निमग्नं नयस्वाद्य पारम्।।33।।
हे अम्बे! आप भी मेरी ओर देखें, हे शंकरप्रिये! आप इस संसार रूप व्याधि् के शान्ति के लिए औषधि् हैं। अनेक प्रकार के क्लेशों से सन्तप्त, व भवसागर में डूबे हुए मुझे अपने चरणकमलों की शरण में रखकर संसार के उस पार कर दो।
अनुद्यल्ललाटाक्षिवप्रिरोहै–रवामस्पफुरच्चारुवामोरुशोभै:।
अनभ्रमद्भोगिभूषाविशेषै–रचनध्र्चूडैरलं दैवतै र्न:।।34।।
हे शम्भो! जिनके ललाटमय स्थित नेत्र में अग्नि का प्ररोह न हो, और जिनके बाँय भाग में सुन्दरी न विराजमान हो, तथा जिनका शरीर सर्पो से भूषित न हो, जो अर्धचन्द्र के शिरोभूषण से भी रहित हों, ऐसे देवताओं से हमारा प्रयोजन ही क्या है?
अकण्ठेकल्कादनेभुजा–दपाणौ कपालादपफालेलाक्षात्।
अमौलौ शशाादवामेकलत्राादहं देवमन्यं न मन्ये न मन्ये।।35।।
हे शम्भो! कण्ठ में कल से रहित, अ में भुज से रहित, और पाणि में कपाल से रहित, भाल में नेत्रााग्नि से रहित, मस्तक चन्द्रमा से रहित, तथा वामभाग में वामा से रहित जो अन्य देव हैं वे हमे मान्य नहीं हैं, कदापि मान्य नहीं हैं। अर्थात् उक्त कल भुज कपालादि सहित देव शंकर ही हमें मान्य हैं।
महोदव शम्भो गिरीश त्रिाशूल
स्त्वदीयं समस्तं विभातीति यस्मात्।
शिवादन्यथा दैवतं नाभिजाने,
शिवोहं शिवोहं शिवोहं।।36।।
हे महादेव! हे शम्भो! हे त्रिाशूलिन्! क्योंकि यह समस्त जगत् आपका है, अर्थात् यह सारा संसार शिवमय ही प्रतीत होता है, इसीलिए मेरे मत में तो शिव से अतिरित्तफ कोई देवता ही नहीं है। अत: शिवाद्वैत भावना से मैं भी शिव ही हूँ, अपने को मैं शिव से पृथक नहीं मानता हूँ, जिसका स्वरूप है ‘शिवोहम्’।
यतोजायतेदं प्रपं विचित्रां,
स्थित याति यस्मिन् यदेकान्तमन्ते।
स कर्मादिहीन: स्वयं ज्योतिरात्मा,
शिवोहं शिवोहं शिवोहं।।37।।
जिस परम शिव से यह विचित्र जगत उत्पन्न हुआ, और जिस परमशिव में ही इसकी स्थिति है, तथा अन्त में जिस परमशिव तत्त्व में ही इसका अवसान है, ऐसे कर्म कर्तृत्वादि व्यापारविहीन शिव स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा हैं, जब शिव ही सबकी परम आत्मा है, तो मैं भी शिवरूप ही हूँ, जिसको ‘शिवोहम्’ इस वाक्य से कहा जाता है।
किरीटे निशेशो ललाटे हुताशो, भुजे भोगिराजो गले कालिमा च।
तनौ कामिनी यस्य तत्तुल्यदेवं, न जाने न जाने न जाने न जाने।।38।।
जिस भगवान् शिव के शेखर में चन्द्रमा है, तथा भुजाओं में सर्पराज वासुकि है, कण्ठ में विष की कलिमा सुशोभित है, और अर्धनारीश्वर होने से शरीर में सुन्दरी पार्वती विराजमान है, ऐसे शिव के समान कोई अन्य देवता हमें नहीं दिखते हैं, अत: शिव से अतिरिक्त किसी अन्य देवता को मैं नहीं जानता हूँ।
अनेन स्तवेनादरादम्बिकेशं, परां भत्तिफमासाद्य यं ये नमन्ति।
मृतौ निर्भयास्ते जनास्तं भजन्ते, हृदम्भोजमये सदासीनमीशम्।।39।।
जो मनुष्य परा भक्ति को प्राप्त कर इस स्तोत्र के द्वारा आदरपूर्वक जिस भगवान् शंकर को नमस्कार करते हैं, वे मृत्यु के बाद निर्भय होते हुए अपने हृदयरूपी कमल में हमेशा विराजमान उसी शंकर का भजन करते हैं।
भुजप्रियाकल्प शम्भो मयैवं, भुजप्रयातेन वृत्तेन क्लृप्तम्।
नर: स्तोत्रामेतत् पठित्वोरूभक्तया, सुपुत्राायुरारोग्यमैर्यमेति।।40।।
हे भुजप्रियभूषण! हे शम्भो! मेरे द्वारा ‘भुजप्रयात’ नामक छन्द में रचे गये इस स्तोत्र को अत्यन्त भक्ति पूर्वक यदि कोई मनुष्य पढ़ता है, तो वह सुन्दर पुत्र, पुशस्त आयु, आरोग्य व ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।
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