Describe the career and achievements of Skand Gupta.

Describe the career and achievements of Skand Gupta.

हूण विजय का महत्त्व हूणों को पराजित करके स्कन्दगुप्त ने अपने पराक्रम एवं युद्ध की निपुणता का परिचय दिया। यह उसकी गौरवपूर्ण विजय थी। स्कन्दगुप्त ने हूणों को परास्त कर उन्हें अपने राज्य की सीमाओं से खदेड़ दिया। उसकी इस विजय से उसकी शक्ति तथा प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि हुई । उसने देश को एक भीषण विपत्ति से बचाकर देश की महत्त्वपूर्ण सेवा की। डॉ. वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि ‘हूणों के विरुद्ध स्कन्दगुप्त की विजय बड़ी महत्त्वपूर्ण थी। यदि वह न होता तो सम्भव था कि हूण सम्पूर्ण उत्तरी भारत को रौंद डालते । सम्भवतः इस विजय के कारण ही उसका यश देश के बहुत बड़े भाग में फैल गया।' डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार का कथन है कि यदि हम स्मरण रखें कि हूणों के अत्याचार डेन्यूब नदी से सिन्धु तक फैल गये थे और उसका नेता एटिला जो कि 543 ई. में मर गया था रेवेन्ना तथा कान्स्टेन्टिनेपाल दोनों की अवज्ञा करने में सफल हुआ और 30 वर्ष बाद उन्होंने ईरान पर आक्रमण किया तो स्कन्दगुप्त की उन पर विजय का महत्त्व हम अनुभव कर सकते हैं। विशाल साम्राज्य की प्रजा ने इस महान् उपकार के कारण चैन की साँस ली होगी। इस पराक्रम के कारण स्कन्दगुप्त के द्वारा विक्रमादित्य की उपाधि धारण करना न्यायपूर्ण है और उसके सिक्कों पर अंकित विक्रमादित्य की उपाधि के साथ ही दिखाई देती है। डॉ. उपेन्द्र ठाकुर का कथन है कि हूणों को हराकर उनके क्रूर और बर्बर आक्रमण से देश की रक्षा कर स्कन्द गुप्त ने देश को बचाया। अतः वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रनायक, राष्ट्रवीर, महान योद्धा, राष्ट्र का मुक्तिदायक और गुप्तवंश का गौरव रक्षक था।'

स्कन्दगुप्त पर वाकाटकों का आक्रमण-

डॉ. डाण्डेकर और कई और विद्वानों की राय है कि स्कन्दगुप्त की कठिनाईयों का लाभ उठाकर मालवा के वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन ने भी गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। डॉ. डाण्डेकर ने नरेन्द्रसेन के पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय के बालाघाट के ताम्रपट को आधार बनाया है। इस लेख में वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन को मालवा का अधिपति कहा गया है। किन्तु अन्य अभिलेखों के अनुसार मालवा गुप्त नरेशों के अधिकार में था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वाकाटकों का गुप्त सम्राटों के साथ संघर्ष हुआ होगा। इस संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ. विद्याधर महाजन का कथन है कि नरेन्द्रसेन के शासनकाल से वाकाटक और गुप्तवंश दोनों राजवंशों का सौहार्द्र राजनीतिक प्रश्नों को लेकर सर्वदा के लिए समाप्त हो गया । नरेन्द्रसेन ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण गुप्तवंश के साथ संघर्ष मोल ले लिया था। स्कन्दगुप्त और नरेन्द्रसेन समकालीन थे। अतः डॉ. महाजन के कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि स्कन्दगुप्त का नरेन्द्रसेन के साथ संघर्ष हुआ होगा। यह भी सम्भावना व्यक्त की गई है कि नरेन्द्रसेन ने स्कन्दगुप्त के शत्रु पुष्यमित्रों के नेतृत्व में दोनों शक्तियों ने मिलकर स्कन्दगुप्त पर आक्रमण किया होगा और इस संघर्ष में स्कन्दगुप्त को पराजित कर मालवा पर अपना अधिकार कर लिया होगा। परन्तु डॉ. अल्टेकर ने इस कथन का विरोध करते हुए कहा है कि इस समय वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन और बस्तर राज्य के नल वंशीय राजा भवदत्त वर्मन के मध्य शत्रुता चल रही थी। अतः यह स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता कि नरेन्द्रसेन ने गुप्तों के साथ भी शत्रुता कर ली हो । डॉ. अल्टेकर ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि सम्भव है कि गुप्तों के अधीन मालवा के सामन्त ने स्कन्दगुप्त काल में अपने को गुप्त साम्राज्य से स्वतंत्र घोषित कर लिया होगा । और इस विद्रोही साप ने सम्भवतः वाकाटक नरेश से भी कुछ सहायता ली होगी परन्तु अधिकांश इतिहासकारों मानना है कि स्कन्दगुप्त के शासनकाल में मालवा पर गुप्ता का ही अधिकार था और काल में वाकाटक नरेशों के साथ उसका कोई संघर्ष नहीं हुआ था।

स्कन्दगुप्त और वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन

 गुप्तकालीन किसी भी अभिलेख में वाकाटकों के आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। अत: इस आक्रमण की सत्यता अभी संदिग्ध ही है। इस सम्बन्ध में डॉ. वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन ने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध पुष्यमित्रों और मालवा के विद्रोही गुप्त सामन्त को सहायता भले ही दी हो परन्तु स्कन्दगुप्त के साथ उसके प्रत्यक्ष युद्ध का कोई प्रमाण नहीं मिलता।'

साम्राज्य विस्तार 

युद्धों से मुक्ति मिलने पर स्कन्दगुप्त ने अपने साम्राज्य को संगठित किया। वह विस्तृत साम्राज्य का स्वामी था, उसके साम्राज्य में मालवा, सौराष्ट्र, गंगा यमुना का दोआब शामिल था। उसके साम्राज्य की सीमा कहाँ-कहाँ तक फैली थी इसका अनुमान हमें उसके अभिलेखों और मुद्राओं से लग जाता है। जूनागढ़ अभिलेख से सौराष्ट्र प्रदेश पर स्कन्दगुप्त का अधिकार सिद्ध होता है। उत्तर प्रदेश में मिले अभिलेख जिनमें कि बुलन्दशहर जिले के दिवाई के समीप इन्दौर नामक स्थान पर मिले ताम्रपत्र, गढ़वा के स्तम्भ लेख, कहौम स्तम्भ लेख, कौशाम्बी लेख और भितरी स्तम्भ लेख आदि इस प्रदेश पर स्कन्दगुप्त के अधिकार को पुष्ट करते हैं। मालवा पर उसके अधिकार को मन्दसौर अभिलेख प्रमाणित करता है। बिहार पर भी स्कन्दगुप्त का अधिकार था। इसकी जानकारी पटना जिले में मिले बिहार स्तम्भ लेख से होती है । बंगाल में मिली उसकी स्वर्ण मुद्राएं, काठियावाड़ में मिले उसके चाँदी के सिक्के इस बात को सिद्ध करते हैं कि इस भू-भाग पर भी उसका अधिकार था। इस प्रकार स्कन्दगुप्त का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा तक और बंगाल से सौराष्ट्र तक विस्तृत थः । समस्त उत्तरी भारत पर उसका अधिकार था।

स्कन्दगुप्त का शासन प्रबंध 

(1) केन्द्रीय शासन 

केन्द्रीय शासन का सर्वोच्च सम्राट स्वयं होता था और उसी की इच्छानुसार सम्पूर्ण शासन संचालित होता था। उसने अपने शासनकाल में सम्पूर्ण साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था कायम रखी। गिरिनार (जूनागढ़) लेख में उसके शासनकाल की प्रशंसा में लिखा गया है स्कन्दगुप्त एक ऐसा सम्राट था जिसके शासनकाल में न तो किसी को कोई दण्ड ही दिया जाता था और न किसी को कष्ट प्रदान कर यातनाएं दी जाती थी। जूनागढ़ अभिलेख से ऐसा विदित होता है कि उसके शासनकाल का दण्ड विधान कठोर न था और उसकी प्रजा समृद्ध एवं सुखी थी, उसके उत्कीर्ण लेखों से जानकारी मिलती है कि वह अपने साम्राज्य को सुसंगठित रखने हेतु उच्च पदाधिकारियों का चयन उनकी कार्यकुशलता एवं योग्यता के आधार पर करता था। गिरिनार अभिलेख से विदित होता है कि गिरिनार का नगराध्यक्ष चक्रपालित, साहसी, पराक्रमी, दानशील तथा विनम्र व्यक्ति था। इसी प्रकार सौराष्ट्र का राज्यपाल पर्णदत्त बुद्धिमान, मृदुभाषी, सत्यवादी, उदार तथा परोपकारी था।

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