मेहरौली स्तम्भलेख में वर्णित ‘चन्द्र' के समीकरण की समस्या का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

मेहरौली स्तम्भलेख में वर्णित ‘चन्द्र' के समीकरण की समस्या का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Critically examine the problem of the identification of king Chandra of Mehrauli Pillor Inscription.
(iii) मेहरौली लौह स्तम्भ के ‘चन्द्र' के विषय में लिखा है कि उसने अपने भुजबल से एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की थी और दीर्घकाल तक एकछत्र शासन किया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के सम्बंध में भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रामगुप्त के कमजोर शासन काल में गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने की सम्भावनाएं बढ़ गयी थी किन्तु इस पराक्रमी सम्राट ने अपने बाहुबल से न केवल उसे सुरक्षित ही रखा वरन् विदेशी शक्तियों का नाश करके अपने साम्राज्य का निर्माण भी किया । और 40 वर्ष तक शासन किया। अतः मेहरौली के स्तम्भ लेख के चन्द्र' का समीकरण चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ किया जा सकता है।
(iv) मेहरौली स्तम्भ लेख में ‘चन्द्र' द्वारा की गई बंगाल विजय का भी उल्लेख मिलता है और इस बंग विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त द्वितीय को दिया जाता है। यह भी सम्भावना बनती है कि रामगुप्त की कायरता के कारण समतट आदि के नरेशों ने एक संघ बनाकर विद्रोह कर दिया हो और अपने को गुप्त साम्राज्य से पृथक कर स्वतंत्रता की घोषणा कर दी हो तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इस संघ को परास्त कर पुनः वहाँ गुप्त शासन की स्थापना की हो ।

मेहरौली स्तम्भलेख और चन्द्र गुप्त

डॉ. नाहर के कथनानुसार “कुमार गुप्त के समय से गुप्त अभिलेख बंगाल में भी प्राप्त होने प्रारम्भ हो गये थे। यह स्पष्ट है कि अब तक बंगाल के अधिकांश भाग पर गुप्त शासन व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी। यह शासन व्यवस्था बड़ी सुचारु और संगठित रूप से चल रही थी। गुप्त शासन व्यवस्था को सुदृढ़ता से कार्य संचालन हेतु कुछ वर्ष अवश्य लगे होंगे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अवश्य ही बंगाल को अपनी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत किया होगा। इस तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय का बंग पर भी स्वामित्व प्रमाणित हो जाता है। गुप्त कालीन सिक्के भी हमारे मत की पुष्टि करते हैं।”
(v) मेहरौली के स्तम्भ लेख में लिखा गया है कि चन्द्र के पराक्रम एवं वीरता से दक्षिणी समुद्र अभी भी सुवासित है। कुछ विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि राजकुमार के रूप में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पिता समुद्रगुप्त की दक्षिण विजय में मदद की थी। यह भी सम्भावना बनती है कि मेहरौली के स्तम्भ लेख की यह पंक्ति उसी की ओर संकेत करती हो । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटक वंश और कदम्ब वंश आदि दक्षिणी राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बंध स्थापित करके अपने प्रतापरूपी वायु के सौरभ से दक्षिण समुद्र को सुवासित कर दिया था । सम्भव है कि मेहरौली लौह स्तम्भ लेख का चन्द्र ही चन्द्रगुप्त द्वितीय हो ।
(vi) भारतीय पुरालिपि के विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि मेहरौली स्तम्भ के लेख की लिपि गुप्त कालीन है इससे स्पष्ट है कि जिस किसी व्यक्ति ने इस अभिलेख को उत्कीर्ण कराया होगा, वह गुप्तकाल का ही महान् मानव रहा होगा। इन तथ्यों को दृष्टि में रखते हुए मेहरौली के लेख के चन्द्र को चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ ही समीकृत करना युक्ति संगत होगा।

मेहरौली स्तम्भलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त का साम्राज्य

(vii) मेहरौली के स्तम्भ लेख का प्राप्ति स्थान भी निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त दिन क राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत था । डॉ. भण्डारकर के विचारानुसार विष्णुपाद पंजा एक पहाड़ी थी । जहाँ से काश्मीर दिखाई पड़ता था । वहाँ से लाकर यह स्तम्भ अपने व स्थान पर लगाया गया था। डॉ. भण्डारकर का यह भी मत है कि यह स्तम्भ चन्द्रगप्त टि द्वारा वाह्निकों पर विजय के उपलक्ष के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में किसी स्थान पर स्थापित करवाया गया था।
| (viii) क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने शैली के आधार पर मेहरौली प्रशस्ति के रचयिता शाबवीर सेन को चन्द्रगुप्त द्वितीय का विदेश सचिव माना है। उदयगिरि के शैव गुहा लेख में उसका नाम दिया गया है। इन दोनों अभिलेखों की रचना शैली में बहुत समानता है। दोनों ही अभिलेखों में न तो किसी तिथि का उल्लेख मिलता है और न सम्राट की वंशावली ही। यह भी सम्भव है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद भी वीरसेन जीवित रहा हो। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में तीर्थ यात्रा करता हुआ वह विष्णुपाद नाम के तीर्थ में भी आया होगा । और अपने स्वाम् की प्रशंसा में इस प्रशस्ति की रचना कर इस स्तम्भ पर उत्कीर्ण कर दिया होगा। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए मेहरौली लौह स्तम्भ लेख के चन्द्र का चन्द्रगुप्त द्वितीय से समीकरण करना अधिक संगत होगा।
(ix) मेहरौली लौह स्तम्भ लेख में यह भी उल्लेखित है कि चन्द्र ने सिंधु नदी की सात सहायक नदियों को पार कर वाह्निकों को परास्त किया था।

मेहरौली स्तम्भलेख और समुद्रगुप्त

समुद्रगुप्त के काल में भारतवर्ष के उत्तर- पश्चिम में कुषाणवंशीय शासन था । समुद्रगुप्त एक पराक्रमी सम्राट था अत: उसकी विजयों से भयभीत होकर कुषाशी शासकों ने समुद्रगुप्त के साथ अधीनस्थ मित्रता स्थापित कर ली थी। इस सम्राट की मृत्यु के उपरान्त गुप्त उत्तराधिकारी रामगुप्त के निर्बल शासन का लाभ उठाते हुए अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इन्हीं कुषाणों को परास्त किया। इस विजय के उपलक्ष में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने व्यास नदी के समीप विष्णु पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करायी थी। अत: कुषाणों को पराजित करने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ही था। यह कार्य उसने सिन्धु नदी की सात सहायक नदियों को पार कर किया था। । (x) एक अन्य विद्वान् वी. सी. पाण्डेय के विचारनुसार भारत का पश्चिम व उत्तर का प्रदेश निसंदेह चन्द्रगुप्त द्वितीय के साम्राज्य में था । मथुरा में सर्वप्रथम इसी सम्राट का एक स्तम्भ लेख प्राप्त हुआ है जिसकी तिथि 380 ई. है । उसकी कुछ ताँबे की मुद्राएं दक्षिण पूर्वी पंजाब में भी मिली हैं।
उपरोक्त विद्वानों के अतिरिक्त डॉ. उदयनारायण राव भी मेहरौली लौह स्तम्भ के चन्द्र का समीकरण चन्द्रगुप्त द्वितीय से करते हुए निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं।
(i) मेहरौली स्तम्भ लेख के चन्द्र ने एक लम्बे समय तक शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्यकाल भं। 40 . तक था।
(ii) मेहरौली स्तम्भ लेख के चन्द्र ने अपने पराक्रम एवं पुजबल से साम्राज्य अजित किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी अपने पराक्रम एवं दृढ़ संकल्प से राज्य सत्ता को प्राप्त किया।
(iii) मेहरौली प्रशस्ति में ‘चन्द्र' की दिग्विजय की सीमाओं का उल्लेख मिलता है। विध नदी के सातमुख, हिन्द महासागर वाह्रीक तथा बंग। उत्तर में हिमालय से दक्षिण में सिंहल द्वीप तक विजयी यात्रा की थी । दिग्विजय की यह गाथाएं उसकी विजयों से समानता रखती हैं।

मेहरौली लौह स्तम्भ लेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय

(iv) मेहरौली लौह स्तम्भ लेख के चन्द्र ने चक्रवर्ती सम्राट के रूप में विस्तृत साम्राज्य पर एक छत्र शासन किया । चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) को सार्वभौम नरेश होना विवाद रहित है। यह भी निसंदेह सर्वमान्य है कि उसकी अधीनता में कई मॉडलिक राज्य करते थे।
(v) मेहरौली लौह स्तम्भ लेख की लिपि गुप्तकालीन है। इससे यह लगता है कि प्रशस्ति गुप्त काल में ही उत्कीर्ण की गई थी।
| उपरोक्त तर्कों के आधार पर इस बात की पुष्टि होती है कि मेहरौली स्तम्भ लेख का चन्द्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ही था । डॉ. पुरुषोत्तम लाल भार्गव का कथन है कि “तिथि एवं वंश क्रम के अभाव में यह निश्चित रूप से कहना असम्भव है कि यह कौनसा चन्द्र था। लिपि के आधार पर मेहरौली अभिलेख तीसरी या चौथी शताब्दी का माना जाता है। इस शताब्दी के चन्द्र नामक सम्राटों में निसंदेह सबसे प्रतापी चन्द्रगुप्त (विक्रमादित्य) ही था। चन्द्रगुप्त द्वितीय वैष्णव मतावलम्बी भी था और स्वयं को परम भागवत की उपाधि धारण करने में गर्व महसूस करता था । अतः सम्भव है कि इस लौह स्तम्भ का चन्द्र, चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है।” इसी सम्बंध में डॉ. राजबली पाण्डेय का कथन है कि ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) की दिग्विजय का संक्षिप्त किन्तु काव्यमय वर्णन मेहरौली के लौह स्तम्भ लेख में पाया जाता है। अपने कथन को विश्वास पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हुए डॉ. पाण्डेय लिखते हैं कि निश्चित रूप से मेहरौली स्तम्भ लेख का चन्द्र, चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है।

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