“मेहरौली प्रशस्ति के ‘चन्द्र' की सफलताएं चन्द्रगुप्त द्वितीय से अधिक समुद्रगुप्त का स्मरण दिलाने वाली हैं।” विवेचना कीजिए।
यह लौह स्तम्भ दिल्ली के अन्दर मेहरौली नामक गाँव में स्थापित है इस गाँव का प्राचीन नाम मिहिरपुर था, यहीं पर कुतुबमीनार के निकट एक लौह स्तम्भ पर शार्दूल विक्रीडित छन्द में लिखे संस्कृत भाषा में चन्द्र' नामक राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक लिखे हैं जिसमें कि इस स्तम्भ के राजा चन्द्र की सफलताएं निम्न प्रकार दी गई हैं।(1) राजा चन्द्र ने “बंग युद्ध में अपने पराक्रम से शत्रुओं का पीछा किया। इस बंग से पूर्वी बंगाल का बोध होता है। इस लौह स्तम्भ पर लिखे श्लोकों से ज्ञात होता है कि ‘चन्द्र ने बंग देश के राजाओं के संघ का सामना किया और इनको पराजित कर यश प्राप्त किया।” इस विजय के परिणाम स्वरूप बंगाल की उपजाऊ भूमि गुप्तों के अधिकार में आ गई तथा उनका साम्राज्य धन धान्य से परिपूर्ण हो गया।
इस स्तम्भ लेख के श्लोकों में यह भी उल्लेखित है कि उसने सिन्धु नदी की सात सहायक नदियों (सतलज से लेकर काबुल तक) को पार कर वाह्नीकों को पराजित किया। चन्द्रगुप्त की वीरता औ पराक्रम से दक्षिण समुद्र आज भी सुवासित हो उठता है।
मेहरौली लौह स्तम्भ (Mehrauli Pillar Inscription)
(2) जिस सम्राट ने अपने भुजबल से अपने साम्राज्य को बढ़ाया। अपने साम्राज्य में बाधक शत्रुओं का नाश किया। वही सम्राट इस भूमि से खिन्न हो जाने के कारण ऐसा लगा जैसे कि इस भूमि या साम्राज्य से संन्यास ले लिया था। अब वह ऐसे लोक का आश्रय ले चुका था, जहाँ उसे शान्ति मिली। वह अपने शारीरिक प्रयत्नों से जीती जाने वाली भूमि में पहुंच चुका था लेकिन उसके पराक्रम और वीरता के यश से वह अब भी इसी लोक में स्थित था। शत्रुओं का अन्त कर अपने साम्राज्य में वृद्धि करने वाले उस पराक्रमी सम्राट के प्रयत्नों की याद आज भी इस भूमि पर से नहीं मिटाई जा सकती ।।(3) उस पराक्रमी एवं वीर शासक ने अपने भुजबल से भूमण्डल में अर्जित राज्य में दीर्घकाल तक एक छत्र राज्य किया था और जिसका नाम चन्द्र था पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह जिसका मुख आकर्षक था। उस सम्राट ने वैष्णव अनुयायी व विष्णुपाद नामक पर्वत के ऊपर विष्णुध्वज या विष्णुध्वज लौह स्तम्भ स्थापित किया।
लौह स्तम्भ पर सार्दूल विक्रीडित छन्द में लिखे संस्कृत श्लोकों के उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि -
(i) सम्राट चन्द्र वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
(ii) वह एक पराक्रमी सम्राट था जिसने अपने भुजबल से विशाल साम्राज्य अर्जित कर दीर्घकाल तक एकछत्र शासन किया । इस प्रतापी शासक ने बंगदेश के राजाओं के संघ का सामना कर परास्त किया। उसने सिन्धु नदी की सात सहायक नदियों को पार कर वाह्निकों को पराजित किया । मेहरौली स्तम्भ लेख में इस बात की जानकारी नहीं मिल पाती कि इसने बंगाल में किस युद्ध में किस वंश के किस सम्राट को पराजित किया और कब किया? इसमें तिथिक्रम का भी उल्लेख नहीं है।
(iii) इतिहासकारों का यह मानना है कि पूर्व में यह लौह स्तम्भ विष्णु ध्वज नाम से विष्णुपद नाम के पर्वत पर स्थापित किया गया होगा, और कालान्तर में मेहरौली लाया गया होगा । (iv) इस लौह स्तम्भ लेख के उत्कीर्ण होने के समय वह जीवित नहीं था।
मेहरौली लौह स्तम्भ के चन्द्र का समीकरण
(1) मेहरौली लौह स्तम्भ के 'चन्द्र' का समीकरण चन्द्रांश के साथ - डॉ. एच. सी. राय चौधरी ने पुराणों का सहारा लेते हुए कहा है कि नागवंशीय शासक चन्द्रांश ही मेहरौलीस्तम्भ लेख का राजा चन्द्र था। पुराणों में नागवंश के परवर्ती आन्ध्र सम्राटों की सूची में चन्द्रांश नाम के एक राजा का उल्लेख है इसे ही पुराणों में द्वितीय नरववंत या द्वितीय नहयाण की उपाधि से अलकूत किया गया है
खण्डन - डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय ने डॉ. राय चौधरी के मत का खण्डन करते हुए। लिखा है कि किसी भी साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती कि सदाचन्द्र प. चन्द्रांश नाम के किसी सम्राट ने समस्त उत्तरी भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना की थी। एक अन्य इतिहासकार के अनुसार चन्द्रांश' का नाम तो प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों ने प्रायः इसी समस्या के अध्ययन में पहली बार पढ़ा या सुना होगा। ऐसे उपेक्षित एवं अस्पष्ट नरेश का चन्द्र से तादात्म्य स्थापित करना असंगत प्रतीत होता है । इस तरह डॉ. चौधरी का मत भी स्वीकार योग्य नहीं है।'
(2) चन्द्रवर्मन से समीकरण -
डॉ. हरप्रसाद शास्त्री के मतानुसार मेहरौली लौह स्तम्भ लेख को चन्द्र पुष्करण का सम्राट चन्द्रवर्मन था जो कि सिंहवर्मा का पुत्र था। इस मत । की प्रमुख आधार एक अभिलेख है, जो पश्चिमी बंगाल के बाँकुड़ा जिले में सुसुनिया पर्वत पर उत्कीर्ण है। इस अभिलेख से यह विदित होता है कि पुष्करण में चन्द्रवर्मन नाम का एक रोजी शासन कर रहा था। यह राजा महाराज सिंह वर्मन का पुत्र था। यह सम्राट भी वैष्णव था । मंदसौर लेख के अनुसार दशपुर (मालवा) में एक वर्मन वंश शासन कर रहा था। मंदसौर के 404 ई. के लेख में सिंहवर्मा का लेख है। इस तरह शास्त्रीजी के मतानुसार चन्द्रवर्मन वास्तव में दशपुर के वर्मन वंश में पैदा हुआ था और जिसे (चन्द्र वर्मा) को महत्त्वकांक्षी दशपुर (मालवा) सम्राट माना गया है।खण्डन - अधिकांश इतिहासकार महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के मत को स्वीकार नहीं करते । उन्होंने शास्त्री के मत का खण्डन करते हुए निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किये
। (i) जोधपुर में स्थित पोखरन के साथ पुष्करण का समीकरण भ्रमात्मक है । पोखरन जोधपुर के अतिरिक्त पश्चिमी बंगाल में भी स्थित है। ऐसा सम्भव है कि पुष्करण यही हो और चन्द्रवर्मन पश्चिमी बंगाल का ही कोई स्थानीय सम्राट रहा हो ।
(ii) पुष्करण के सम्राट सामान्य स्तर के थे । इन शासकों में से किसी भी शासक ने साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण नहीं किया ।
(iii) मंदसौर अभिलेखों में चन्द्रवर्मन का उल्लेख न होने से इसका समीकरण मेहरौली स्तम्भ लेख के चन्द्र से ही की जा सकती ।।
। (iv) प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर “पंडित हरप्रसाद शास्त्री का यह मत हमें इस बात पर अमान्य है क्योंकि इस सम्राट को समुद्रगुप्त ने उन्मूलित कर दिया था। मेहरौली स्तम्भ लेख का चन्द्र तो पराक्रमी नरेश था। उसकी दिग्विजय की धाक चारों दिशाओं में फैल रही थी। अतएव समुद्रगुप्त द्वारा उन्मूलन चन्द्र वर्मन से उसकी एकात्मकता नहीं स्थापित की जा सकती।”
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