भारतीय इतिहास के संबंध में स्कन्दगुप्त और उसकी उपलब्धियाँ
चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद गुप्त साम्राज्य की बागडोर किसके हाथ में आयी। यह आज भी ऐतिहासिक वाद-विवाद का विषय बना हुआ है। कुछ इतिहासकार बसाढ़ (वैशाली) मुहर और मंदसौर अभिलेख के आधार पर धुवदेवी के पुत्र गोविन्द गुप्त को चन्द्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी बताते हैं लेकिन कुछ इतिहासकार प्रमुख वंशावलियों के आधार पर जहाँ चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् कुमार गुप्त का नाम दिया है यह मानते हैं कि गोविन्द गुप्त सम्भवतः वैशाली का स्थानीय शासक रहा होगा और कुमार गुप्त ही सम्राट बना । आधुनिक विद्वानों की राय है कि यदि गोविन्द गुप्त स्वतंत्र सम्राट बना हो तो भी वह केवल दो या तीन वर्ष तक ही राज्य कर सका।।अनेक इतिहासकार गुप्त राजवंश से सम्बन्धित प्रमुख वंशावलियों के आधार पर, जिनमें चन्द्रगुत् विक्रमादित्य के पश्चात् कुमार गुप्त का नाम दिया गया है, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की अन्तिम तिथि 93 गुप्त सम्वत् अर्थात् 412 ई. उसके साँची अभिलेख से प्राप्त होती है। कुमार गुप्त उसकी मृत्यु के बाद ही सिंहासन पर बैठा । यद्यपि उसके शासनकाल की प्रथम तिथि 96 ई. गुप्त सम्वत् अर्थात् 415 ई. बिलसाड़ अभिलेख से ज्ञात होती है उसके शासनकाल की अन्तिम तिथि उसकी चाँदी की मुद्राओं से पता चलती है। यह तिथि 136 गुप्त सम्वत् अर्थात् 455 ई. है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि कुमार गुप्त ने 412 ई. से 455 ई. तक राज्य किया। हालाँकि यह तिथि निश्चित रूप से निर्धारित नहीं की जा सकती। जो भी हो कुमारगुप्त पट्टमहादेवी ध्रुव देवी का पुत्र था। उनके 15 अभिलेख प्राप्त हैं जिनमें उसे पिता से प्राप्त समुद्र तक फैले साम्राज्य का शासक के रूप में वर्णित किया गया है । इसने । सम्भवत: कोई नया प्रदेश नहीं जीता लेकिन पैतृक साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यवर्ती जनपद कुमार गुप्त के वशवर्ती थे। उसके शासनकाल में विशाल गुप्त साम्राज्य में सर्वत्र शान्ति विराजती थी । इसीलिए विद्या और धन, कला इत्यादि। की समृद्धि की दृष्टि से यह काल वस्तुत: भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग का ही भाग था।
भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग
डॉ. उपेन्द्रनाथ ठाकुर का कथन है कि ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र कुमार गुप्त प्रथम गुप्तवंश के महान् सम्राटों में एक है । समकालीन अभिलेखों तथा साहित्यिक सामग्रियों से ज्ञात होता है कि उसके राज्य में पूर्ण शान्ति थी तथा राजनीतिक घटनाओं की दृष्टि से इसका शासनकाल कतई महत्त्वपूर्ण नहीं था । शासन के अन्तिम चरण में हूण आक्रमण के अतिरिक्त और कोई भी ऐसी घटना नहीं घटी जिसे उल्लेखनीय कहा जा सकता है । इस अखण्ड शान्ति का सारा श्रेय उसके पूर्वजों को है।'प्रारम्भिक काल कुमार गुप्त प्रथम के अभिलेखों से विदित होता है कि उसके शासन काल का प्रारम्भिक दौर सुख, शान्ति और सम्पन्नता का काल था और उसे इस काल में किसी तरह की बाहरी आपत्तियों या आक्रमणों का सामना नहीं करना पड़ा। विलसद के लेख के अनुसार इस सम्राट के साम्राज्य में चारों ओर सुरक्षा और सुख एवं शान्ति का वातावरण था। प्रजा खुशहाल थी इसमें स्वामी कार्तिकेय के मन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख मिलता है। गढ़वा के दोनों लेखों से प्रतीत होता है कि अपने राज्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में यह अपने साम्राज्य के साधनों का प्रयोग सार्वजनिक एवं धार्मिक कार्यों में कर रहा था। वह खुले दिल से दान किया करता था । जनता सम्पन्न थी, उसने मन्दिरों, देवालयों, विहारों आदि को बड़ी उदारता से दान दिया था । उपरोक्त लेखों से स्पष्ट होता है कि उसके प्रारम्भिक वर्ष शान्ति के वर्ष थे और उसने अपना अधिकतर समय परोपकार के कार्यों में लगाया ।
कुमार गुप्त एवं उसका साम्राज्य
साम्राज्य विस्तार कुमार गुप्त एक पराक्रमी एवं महत्त्वाकांक्षी सम्राट था । परन्तु वह एक उदार हृदय सम्राट था जहाँ तक उसकी विजयों का प्रश्न है। वह कोई महान विजेता तो नहीं था लेकिन अपने वंशानुगत साम्राज्य को जो उसे उत्तराधिकार स्वरूप मिला उसने अवश्य सुरक्षित और संगठित रखा। उसके मंदसौर अभिलेख से विदित होता है कि कुमार गुप्त चारों समुद्रों की चंचल लहरों से घिरी हुई पृथ्वी पर शासन करता था। उसके सिक्के और अभिलेख बंगाल से लेकर सौराष्ट्र तक तथा हिमालय से लेकर नर्मदा तक के क्षेत्र में मिले हैं। इन साक्ष्यों से उसके साम्राज्य के विस्तृत होने का संकेत मिलता है। डॉ. उपेन्द्र नाथ ठाकुर का कथन है। कि कुमार गुप्त एक विशाल और सुव्यवस्थित राज्य का अधिकारी हुआ। वह एक महान विजेता तो नहीं था पर उसने अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित रखा।' डॉ. ठाकुर पुराणों को आधार बनाते हुए अपना मत व्यक्त करते हैं। ‘कुमारगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार कलिंग और माहिषक को मिलाकर किया था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कुमार गुप्त ने अपने पितामह समुद्रगुप्त के समय के अनेक दक्षिण पूर्वी सामन्तों को जिन्होंने उसके पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ मैत्री बनाये रखी थी मिटा दिया ।' कुमारगुप्त के मन्दसौर अभिलेख एवं सिक्कों से प्रमाणित होता है कि इसकी रजत मुद्राएं काठियावाड़, गुजरात, वल्लभी, मोरवी, जूनागढ़, अहमदाबाद तथा कैरा नामक स्थान से मिली हैं।कुमार गुप्त एवं उसकी नीतियाँ
इसके पुत्र स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ से एक लेख प्राप्त हुआ है इससे विदित होता है कि इसका साम्राज्य पश्चिम में गुजरात तथा काठियावाड़ तक फैला हुआ था। पूर्व में उसकी सीमा बंगाल तक थी । पूर्वी मालवा उसके साम्राज्य में था उत्तर प्रदेश के कई स्थानों से इसके लेख मिले हैं इसने अपने मध्यदेशीय सिक्कों को गंगा की घाटी में प्रचलित करने के लिए तैयार कराया । विभिन्न साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि कुमार गुप्त प्रथम के साम्राज्य में अग्रलिखित राज्य सम्मिलित थे।(1) बंगाल कुमार गुप्त प्रथम के उत्तरी बंगाल में मिले ताम्रपत्रों से प्रमाणित है कि बंगाल इस सम्राट के अधीन था। दामोदरपुर के प्रथम और द्वितीय दोनों ताम्रपत्रों से बंगाल आधिपत्य की बात सिद्ध होती है। इन दोनों ही ताम्रपत्रों से जा मिलती है कि पुण्ड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) में चिरातदत्त कुमार गुप्त का प्रान्तपाल था। |
(2) पश्चिमी भारत—कुमारगुप्त प्रथम के भारत के पश्चिम क्षेत्र के विभिन्न प्रदेश में अभिलेख एवं सिक्के प्राप्त हुए हैं। मन्दसौर प्रशस्ति लेख से जानकारी मिलती है कि पश्चिमी मालवा में कुमार गुप्त ने शासन के व्यवस्थित पंचालन हेतु बन्धुवर्मन को राज्यपाल नियुक्त कर रखा था। इसी तरह एक अन्य तुकाई अभिलेख से विदित होता है कि कुमार गुप्त ने घटोत्कच गुप्त को पूर्वी मालवा (एरण प्रदेश) का गवर्नर नियुक्त कर रखा था। उसकी मुद्राएं अहमदाबाद, सतारा, जूनागढ़ और वल्लभी में मिली हैं। इन मुद्राओं से भी सिद्ध होता है कि कुमार गुप्त पश्चिमी भारत का भी स्वामी था।
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