स्कन्दगुप्त के जीवनकाल और उपलब्धियों का आलोचनात्पक मूल्यांकन कीजिए।
कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 455 ई. में मगध का सिंहासन उसके पुत्र स्कन्दगुप्त के अधिकार में आ गया। बहुत से इतिहासकारों का अभिमत है कि कुमार गुप्त की मृत्यु पर उसके दो पुत्रों पुरुगुप्त और स्कन्दगुप्त में राज्याधिकार के लिए युद्ध छिड़ा, जिसमें पुरुगुप्त पराजित हुआ और स्कन्दगुप्त को गद्दी मिली, किन्तु साक्ष्यों के आधार पर यही सिद्ध होता है कि पुरूगुप्त और स्कन्दगुप्त एक ही व्यक्ति थे और उनमें संघर्ष नहीं हुआ । स्कन्दगुप्त शासन के ऐतिहासिक तथ्य हमें उसके जूनागढ़, कहोम, रीवा स्तम्भ, भीतरी स्तम्भ, कौशाम्बी, गढ़वा के अभिलेखों से प्राप्त हुए हैं। गुप्तवंश के महान् शासकों में स्कन्द गुप्त का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
स्कन्दगुप्त के जीवनकाल की प्रारम्भिक कठिनाईयाँ–
स्कन्दगुप्त के शासनकाल के आरम्भिक वर्ष बड़े ही अशान्ति एवं कष्टों से परिपूर्ण रहे उसे प्रारम्भिक वर्षों में ही बाह्य शत्रुओं जिनमें कि पुष्यमित्र तथा हूण मुख्य थे से युद्ध करना पड़ा। इस समय गुप्त वंश की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी थी और स्कन्दगुप्त को अपने बाहुबल से उसे पुनः स्थापित करना पड़ा था। स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से विदित होता है कि उसने अपने पिता के देहावसान के पश्चात् अपनी भुजाओं के पराक्रम से अपने शत्रुओं को परास्त किया और अपने वंश के ग्रस्त भाग्य को पुनः प्रतिष्ठित किया और फिर विजय प्राप्त की । उसने हूणों के साथ घमासान युद्ध करके भंवर जैसा आंदोलन उत्पन्न करके अपनी दो भुजाओं से पृथ्वी को कम्पित कर दिया। इस तरह स्कन्दगुप्त ने अपने शासन के प्रारम्भिक दौर में अपने शत्रुओं को (जिनसे कि गुप्तवंश की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी थी) परास्त कर इस वंश की राजलक्ष्मी को पुनस्र्थापित किया और गुप्तवंश की मर्यादा और प्रतिष्ठा की रक्षा की।
(1) पुष्यमित्रों का आक्रमण
स्कन्दगुप्त अपनी विजयों के लिए अधिक प्रसिद्ध है। इस सम्बन्ध में उसके भीतरी और जूनागढ़ अभिलेखों से विशेष सामग्री प्राप्त हुई है। गद्दी पर बैठते ही स्कन्दगुप्त को बाह्य आक्रमणों का सामना करना पड़ा। भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासन के अन्तिम वर्ष में मगध पर पुष्यमित्रों का भयंकर आक्रमण हुआ था। उस समय तक स्कन्दगुप्त युवराज ही था और इस समय कुमार गुप्त वृद्धावस्था को प्राप्त हो चुका था। अतः कुमारगुप्त ने साम्राज्य पर आयी इस विपत्ति का मुकाबला करने का दायित्व अपने सुयोग्य एवं पराक्रमी पुत्र स्कन्दगुप्त को सौंपा। स्कन्दगुप्त ने आक्रमणकारियों का डटकर सामना किया और युद्ध भूमि में शत्रुओं को पराजित किया किन्तु इसी बीच उसके पिता की मृत्यु हो गई। इस प्रकार भीतरी अभिलेख से स्पष्ट है कि पुष्यमित्रों को जीतकर स्कन्दगुप्त गद्दी पर बैठा। परन्तु कुछ विद्वान यह मानते हैं कि पुष्यमित्रों का आक्रमण उसके पिता की मृत्यु के पश्चात् हुआ । मंजूश्री मूलकल्प में भी इस घटना का उल्लेख मिता है जिसके अनुसार स्कन्दगुप्त ने पुष्यमित्रों को परास्त किया था उनको हराना स्कन्दगुप्त के लिए गर्व की बात थी । पुष्यमित्रों के साथ युद्ध सम्भवतः 455-56 ई. के लगभग हुआ होगा युद्ध कभी हुआ हो इस आक्रमण का मुकाबला करने में उसे काफी कष्ट सहने पड़े। भीतरी अभिलेख में लिखा है कि जिसने अपने परिवार के ग्रस्त भाग्य को जगाने के लिए एक रात्रि पृथ्वी पर व्यतीत की और पुष्यमित्रों को परास्त करके, जो बहुत धनवान और शक्तिशाली बन गये थे उनके राजा के ऊपर अपना बाँया पैर रखा।'
(2) हूणों का आक्रमण
स्कन्दगुप्त को पुष्यमित्रों के आक्रमण के पश्चात है। आक्रमण का सामना करना पड़ा यह आक्रमण उसके शासनकाल के प्रारम्भ में हुआ आक्रमण किस सन में हुआ इसका अभी निर्णय नहीं हो पाया है लेकिन अधिकाँश वि मानते हैं कि हूणों का आक्रमण स्कन्दगुप्त के सिंहासनारोहण के आस-पास हुआ था। से विमल चन्द पाण्डेय का कथन है कि जूनागढ़ अभिलेख में म्लेच्छों (हूणों) की पराजय का उल्लेख है। इस अभिलेख की तिथि गुप्त सम्वत् 136 अर्थात् 455 ई. है। अतः हूणों की पराजय इस तिथि के पूर्व ही हो गई होगी।' जबकि स्कन्दगुप्त के समय हूणों का आक्रमण डॉ. पी.एल. भार्गव के अनुसार 455 ई. और 458 ई. के बीच हुआ होगा। डॉ. हार्नले का मत है कि हूणों का आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासनकाल में नहीं हुआ था । लेकिन अधिकतर विद्वान डॉ. हार्नले के मत को स्वीकार नहीं करते । स्कन्दगुप्त और हूणों के मध्य युद्ध के स्थान को लेकर भी विद्वानों का मतभेद रहा है। परन्तु ऐसा माना जाता है कि यह युद्ध सम्भवतः गंगा की घाटी में कहीं हुआ हो । उत्तर पश्चिमी भारत में अब भी उनके आधार वर्तमान थे। उनके सुरक्षा के निमित्त स्कन्दगुप्त ने अपने सुराष्ट्र प्रान्त के मोर्चा स्थलों पर भी रक्षकों की नियुक्ति की थी। डॉ. वी.सी. पाण्डेय के अनुसार “हूण युद्ध सौराष्ट्र में ही हुआ होगा और सौराष्ट्र को ही स्कन्दगुप्त अपने साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण भाग समझता था।”
स्कन्दगुप्त और हूणों के मध्य युद्ध
हूण मध्य एशिया की घुमक्कड़ जाति के लोग थे। ये बर्बर थे तथा लूटमार द्वारा आतंक फैलाये हुए थे। इनकी कई शाखाएं थी। जिनमें से एक ने अफगानिस्तान को पारकर भारत पर आक्रमण किया। स्कन्द्रगुप्त ने हूणों पर भीषण प्रहार किया। उसके प्रत्याक्रमण की भयंकरता से हूणों के छक्के छूट गये और वे जान बचाकर भाग लिए। भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त और हूणों के युद्ध के समय स्कन्दगुप्त के पराक्रम के फलस्वरूप सारी पृथ्वी काँपने लगी । गिरिनार (जूनागढ़) अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने इन म्लेच्छों (हूणों) के गर्व को चूर कर दिया और वे भी अपने देश में स्कन्दगुप्त का यशोगान करने लगे। इस तरह अपने सेनापतियों की सहायता से स्कन्दगुप्त ने हूणों को इतना बुरी तरह से पराजित किया कि शताब्दी के अन्त तक गांधार के पूर्व की ओर उन्होंने आंख उठाकर देखने का साहस तक नहीं किया।
स्कन्दगुप्त की हूणों पर विजय
अभिलेखों में स्कन्दगुप्त और हूण युद्ध का जो वर्णन मिलता है उसके अनुसार स्कन्दगुप्त ने बर्बर आक्रमणकारियों को अपने भुजबल से परास्त कर गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाया । इस युद्ध के पश्चात् हूणों को पीछे हटना पड़ा। और कुछ समय के लिए गुप्त साम्राज्य बच गया। इस सम्बन्ध में डॉ. राजबली पाण्डेय ने लिखा है कि 'यद्यपि स्कन्दगुप्त ने अपने शासन के प्रारम्भ में हूणों को हराकर भारत से बाहर निकाल दिया था किन्तु हिन्दूकुश के दक्षिण में हूणों का जो जमघट हो गया था। उससे भारत वर्ष को एक स्थायी आशंका और संकट उत्पन्न हो गया। ऐसा जान पड़ता है कि पश्चिमोत्तर सीमा पर उनका दबाव बना रहा और उनकी आड़ को रोकने के लिए बड़ी जागरूकता और परिश्रम से काम करना पड़ा और पानी की तरह धन बहाना पर, स्कन्दगुप्त के मिश्र धातु के सिक्के इस बात के प्रमाण है आन्तरिक और बाह्य कठिनाईयों को सहते हुए वह देश की रक्षा करने में समर्थ रहा ।'
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