पश्चिमी क्षत्रप-नहपान, रुद्रदामन प्रथम और उनकी उपलब्धियाँ

2. पश्चिमी क्षत्रप-नहपान, रुद्रदामन प्रथम और उनकी उपलब्धियाँ (Western Kshatrapas, Nahapana-Rudradaman I and their Achievement.)


प्रश्न 5. क्षत्रप शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए पश्चिमी क्षत्रपों का परिचय दीजिए?
Clearily the meaning of the word Kshatrapas and identiefy the Western Kshatrapas

क्षत्रप शब्द का अर्थ (The meaning of Kshatrapas)-


क्षत्रप शब्द फारसी शब्द क्षत्रपावन् का संस्कृत रूपान्तर है, जिसका अर्थ होता है ‘प्रान्त का शासक'। शक शासकों के भारतीय प्रान्तपालों या गवर्नरों को क्षत्रप कहा जाता था। पूर्व में क्षत्रप एक ईरानी शब्द था । परन्तु शक शासकों द्वारा इस शब्द का प्रयोग भारत में भी किया जाने लगा । प्रत्येक प्रान्त में दो क्षेत्रप होते थे। एक छोटा सैट्रप जो क्षत्रप कहलाता था और दूसरा बड़ा सैट्रप जिसे महाक्षत्रप कहते थे । क्षत्रप और महाक्षत्रप का सम्बन्ध युवराज और राजा की तरह था। क्षत्रपों के शासन में साधारण व्यवहार यह था कि महाक्षत्रप क्षत्रप की मदद से शासन करता था और यह क्षत्रप साधारणतः उसका पुत्र होता था जो उचित अवसर या समय पर महाक्षत्रप हो जाता था। 78वें वर्ष के तक्षशिला के ताम्रपत्र लेख में इस प्रकार के लियक, कुसुलक और उसके पुत्र पतिक के दो नाम मिलते हैं। वे तक्षशिला के पास बुहर और चुक्ष जिलों के महाराय मोगा की ओर से क्षत्रप नियुक्त थे। भारत के विभिन्न भागों में कई क्षत्रवीय वंश थे इनको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(i) तक्षशिला और मथुरा के उत्तरी क्षत्रप (Northern Kshatrapas)
(ii) महाराष्ट्र तथा उज्जैन के पश्चिमी क्षत्रप (Western Kshatrapas) पश्चिमी क्षत्रप (Western Kshatrapas)

महाराष्ट्र के क्षत्रप—


महाराष्ट्र में जिस शक शाखा का उदय हुआ वह इतिहास में । क्षहरात या खखराहट वंश के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी वंश ने प्रायः पूरे महाराष्ट्र, लाट और सौराष्ट्र पर शासन किया। |

क्षत्रप नरेश क्षहरात वंशीय भूमक


(i) पश्चिमी भारत का प्रथम ज्ञात क्षत्रप नरेश क्षहरात वंशीय भूमक था। इसके सिक्के गुजरात और सौराष्ट्र के समुद्रतटों पर प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों पर बाण, चक्र, बज्र, सिंह, ध्वज और धर्म चक्र के चिन्ह पाये जाते हैं। अपने ताँबे के सिक्कों में भूमक ने स्वयं को क्षत्रप लिखा है। इस क्षत्रप के सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि के अतिरिक्त खरोष्ठी लिपि भी प्रयोग की गई है। भूमक द्वारा खरोष्ठी लिपि का प्रयोग करने से डॉ. सरकार का मत है कि पश्चिमी राजपूताना और सिन्ध भूमक के अधिकार में थे। इसके सिक्कों से यह भी विदित होता है कि मालवा, गुजरात और काठियावाड़ भी उसके राज्य में सम्मिलित थे ।

(ii) नहपान—


क्षहरातवंश में भूमक के पश्चात् दूसरा सबसे प्रसिद्ध शासक नहपान हुआ । क्षहरात वंश के क्षत्रपों के शासन का केन्द्र नासिक था। नहपान के अनेक लेख नासिक के पास पाण्डूलेन और पूना जिले के जुन्नार और कारले की गुफाओं में मिले हैं। इन प्राप्त अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि वह महाराष्ट्र के विस्तृत भू-भाग का स्वामी था, वह भाग उसने सातवाहनों से जीता होगा। उसकी बहुसंख्यक मुद्राएं मिली है। यह मुद्राएं गुजरात, काठियावाड़ और अजमेर में प्राप्त हुई हैं और यह सम्भावना व्यक्त की जाती है कि इसी क्षत्रप के समय में सातवाहनों को महाराष्ट्र छोड़कर जाना पड़ा। नहपान की राजधानी को लेकर विभिन्न इतिहासकारों में विवाद रहा है। भगवान लाल इन्द्रजी ने उसकी राजधानी जूनागढ़ मानी है, डॉ. भण्डारकर ने मन्दोसर या आधुनिक दसोर विख्यात इतिहासकार फ्लीट ने जुन्नार या दोहद माना है। परन्तु जायसवाल का मत है कि उसकी राजधानी भड़ौच थी। नहपान के शासन के अभिलेख किसी अज्ञान सम्वत् के 41वें से 46 वें वर्ष तक के हैं।

दुबोआ ने इन्हें विक्रम सम्वत् माना है। किन्तु अधिकतर विद्वानों की राय है कि ये शक सम्वत् की ही तिथियाँ हैं। अत: नहपान का कम से कम 119 ई. से 124 ई. तक राज्य करना प्रमाणित होता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यदि वह पेरिप्लस का मैम्बरस अथवा मैम्बनस है तो निश्चित ही नहपान ने प्रथम ईस्वी सदी के तृतीय चरण में शासन किया होगा। नहपान ने अपने सिक्कों में स्वयं को राजा और अन्य प्रारम्भिक लेखों में क्षत्रप लिखा है किन्तु 46वें वर्ष के अभिलेख में महाक्षत्रप लिखा है। नासिक, अभिलेख में नहपान का वर्णन आता है उसके अनुसार अपने स्वामी नहपान का अनुशासन पाकर उषवदात (सम्भवतः यह नहपान का दामाद था) ने मालवों के आक्रमण से उत्तम भद्र लोगों की रक्षा की । मालवों को हटाकर उसने पुष्कर तीर्थ में दान किया । इस अभिलेख में यह भी वर्णित है ।

पुष्कर तीर्थ में स्नान के पश्चात् ब्राह्मणों को प्रचुर मात्रा में गाय और सोना दान दिया। इसी अभिलेख में और कालें के गुहा अभिलेख में उसके द्वारा किये गये अन्य हिन्दू धर्म से सम्बन्धित तीर्थ स्थानों की यात्रा करने और ब्राह्मणों को प्रचुर मात्रा में गाय और सोना दान देने के जो प्रमाण मिलते हैं उनसे नि: सन्देह रूप से कहा जा सकता है कि उषवदात और उसकी रानी दक्षमित्रा ने हिन्दू धर्म में दीक्षा ले ली थी। नहपान के सिक्के अजमेर से दक्षिण में नासिक तक मिले हैं जिनसे उसके राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। इस विस्तार की पुष्टि महाराष्ट्र में प्राप्त हुए उसके आठ अभिलेखों से भी होती है। सातवाहन नरेश के नासिक अभिलेख से एवं नासिक के पास जोगल थम्बी से मिले नहपान के सिक्कों को देखने से विदित होता है कि उनमें से बहुत से गौतमी पुत्र शातकर्णि द्वारा पुनः अंकित कराये गये लेकिन उषवदात का एक भी सिक्का वहाँ पर नहीं मिला। इस तरह नहपाने के पश्चात् उसके दामाद उषवदात के क्षत्रप बनने के प्रमाण नहीं मिलते । इन तथ्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सम्भवतः नहपान के समय में ही गौतमी पुत्र शातकर्णि की सेना ने महाराष्ट्र के शकों के क्षहरात वंश का अन्त कर दिया।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि नहपान एक महत्त्वाकांक्षी शासक था और उसका राज्य काफी विस्तृत था । राज्य विस्तार के लिए उसने कौन- कौनसे युद्ध लड़े इसकी जानकारी नहीं मिलती । नासिक मुद्रा अभिलेख नं.8 से उसके केवल एक ही युद्ध की जानकारी मिलती है जो मालवा आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़ा था।
उज्जैन के पश्चिमी क्षत्रप उज्जैन के क्षत्रप राजवंश का संस्थापक यसोमतिक अथवा जामोतिक था जो चष्टन का पिता था। यसोमतिक का नाम सीवियन उत्पत्ति का है। उसके एक वंशज को जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के द्वारा मारा गया, बाण ने अपने ‘हर्ष चरित' में शक राजा कहा है। इसलिए विद्वान इस बात को स्वीकार करते हैं कि उज्जैन का क्षत्रप कुल शक जाति का ही था।

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