प्रश्न 3. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिये।
(i) गान्धार कला
(ii) मथुरा कला
उत्तर-(i) गान्धार कला (Gandhar Art) - गान्धार कला से अभिप्राय एक विशिष्ट शैली से है जिसका विकास ईसा की प्रथम, द्वितीय शताब्दी में गान्धार या उसके निकटवर्ती प्रदेश में हुआ था। गाँधार कला को इण्डो ग्रीक कला के नाम से पुकारा जाता है। क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं किन्तु इसकी शैली यूनानी है। चूंकि बौद्ध धर्म इसकी प्रेरणा था। अतः इसे ग्रीको बुद्धिष्ट भी कहा जाता है । कनिष्क के समय तक आते-आते महायान धर्म का प्रादुर्भाव हुआ जिसके अन्तर्गत महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण होना प्रारम्भ हो गया। महायान ने कला को प्रोत्साहन दिया। कनिष्क के समय जो मूर्तियाँ बनी उनमें से अधिकाँश मूर्तियों में स्वदेशी एवं विदेशी प्रभावों का सम्मिश्रण है। इस प्रभाव के अन्तर्गत बनी हुई मूर्तियाँ अधिकाँशतः गान्धार प्रदेश में पाई गई हैं। इसलिए उस प्रदेश की कंला को गान्धार कला का नाम दिया गया है।
इस शैली की शिल्प विधि द्वारा जो बुद्ध की मूर्तियाँ निर्मित की गई हैं, वे यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्यता रखती है। उनकी मुद्राएं तो बौद्ध हैं, जैसे कमलासन मुद्रा में बुद्ध बैठे हुए हैं, किन्तु मूर्तियों के मुखमण्डल और वस्त्र निश्चित रूप से यूनानी है जो स्पष्ट तया यूनानी अथवा रोमन कला का प्रभाव है। डॉ. ए. एल. वाशम ने लिखा है कि “गाँधार शिल्पियों ने यूनानी रोमन संसार के देवताओं को अपना आदर्श माना। कभी- कभी उनकी प्रेरणा पूर्णतया पश्चिमी प्रतीत होती है।” गान्धार कला के नमूने वामियान, हस्त-नगर, शाहजी की ढेरी, तक्षशिला, हुडु आदि स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।
इनमें से अधिकाँश पेशावर और लाहौर के अजायब घरों में सुरक्षित हैं। ये मूर्तियाँ स्लेटी पत्थर की हैं। बाद की मूर्तियाँ लाइम प्लास्टर स्टुको तथा धातु की भी हैं। इन मूर्तियों का विषय बौद्ध अथवा भारतीय है किन्तु उनके निर्माण में यूनानी शैली का प्रयोग किया गया है। इस काल के शिल्पकारों ने मूर्तियों के माध्यम से महात्मा बुद्ध के जीवन की विविध घटनाओं को भी प्रदर्शित किया है।
गान्धार कला का सबसे अधिक विकास कुषाण काल में हुआ इस कला की प्रमुख विशेषताएं अग्र हैं।
(1) गान्धार कला की विषय वस्तु भारतीय है किन्तु निर्माण का ढंग यूनानी।
(2) गान्धार कला का विषय प्रधान रप से महात्मा बुद्ध तथा उनके जीवन से सम्बन्धित दृश्य है। बौधिसत्वों की मूर्तियाँ भी काफी संख्या में हैं।
(3) इस शैली में बनी प्रारम्भिक महात्मा बुद्ध की मूर्तियों में उनका चेहरा यूनानी देवता
अपोलो से मिलता जुलता है और मूर्तियों का परिवेश रोमन ‘टोगा' जैसा है।
(4) इस कला के अन्तर्गत विनिर्मित मूर्तियों में शरीर तथा उसके प्रत्येक अंग को यथासम्भव वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का यत्न किया गया है । आकार प्रकार के अतिरिक्त शरीर के पट्ठे, हड़ियाँ, नाडियाँ, पसलियाँ आदि इस काल की मूर्तियों में भली प्रकार से दिखाई गई हैं। महात्मा बुद्ध की वह मूर्ति जिसमें वे घोर तप के फलस्वरूप सूख कर काँटा हो गये। हैं गान्धार कला की एक अद्वितीय कृति है। इसमें बुद्ध का पेट भूख के कारण अन्दर की ओर धेसा है, माँस के सूख जाने से अंतड़ियाँ बिल्कुल नंगी हैं किन्तु उनके चेहरे से गम्भीरता टपक रही है जो इस अवस्था में भी उनके दृढ़ निश्चयी होने का प्रमाण है। श्री बी.एन. पुरी के अनुसार “इस मूर्ति के कलाकार ने जिस योग्यता का प्रमाण दिया है अत्यधिक सराहनीय है।” इस कला में मूर्तियों को भूषण, वस्त्र आदि पहनाये गये हैं। इससे श्रीवृद्धि के साथ सजीवता का भी समावेश हुआ है।
(5) यह कला गान्धार से हुडु और वहाँ से बामियान एवं वहाँ से चीनी तुर्किस्तान तक पहुँची । पाश्चात्य कला समीक्षकों का विचार है कि भारत की सर्वश्रेष्ठ कला का निर्देशन गान्धार कला द्वारा ही होता है। किन्तु इस कथन में लेशमात्र भी सत्यता नहीं है। सत्य तो यह है कि कला के क्षेत्र में भारत पर पश्चिम का प्रभाव कभी गम्भीर न पड़ सका । हैवेल के अनुसार भारतीय कला पर यूनानी कला का प्रभाव केवल तकनीकी था और वह किसी प्रकार भी एक आध्यात्मिक या बौद्धिक प्रभाव नहीं था।
(i) गान्धार कला
(ii) मथुरा कला
उत्तर-(i) गान्धार कला (Gandhar Art) - गान्धार कला से अभिप्राय एक विशिष्ट शैली से है जिसका विकास ईसा की प्रथम, द्वितीय शताब्दी में गान्धार या उसके निकटवर्ती प्रदेश में हुआ था। गाँधार कला को इण्डो ग्रीक कला के नाम से पुकारा जाता है। क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं किन्तु इसकी शैली यूनानी है। चूंकि बौद्ध धर्म इसकी प्रेरणा था। अतः इसे ग्रीको बुद्धिष्ट भी कहा जाता है । कनिष्क के समय तक आते-आते महायान धर्म का प्रादुर्भाव हुआ जिसके अन्तर्गत महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण होना प्रारम्भ हो गया। महायान ने कला को प्रोत्साहन दिया। कनिष्क के समय जो मूर्तियाँ बनी उनमें से अधिकाँश मूर्तियों में स्वदेशी एवं विदेशी प्रभावों का सम्मिश्रण है। इस प्रभाव के अन्तर्गत बनी हुई मूर्तियाँ अधिकाँशतः गान्धार प्रदेश में पाई गई हैं। इसलिए उस प्रदेश की कंला को गान्धार कला का नाम दिया गया है।
इस शैली की शिल्प विधि द्वारा जो बुद्ध की मूर्तियाँ निर्मित की गई हैं, वे यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्यता रखती है। उनकी मुद्राएं तो बौद्ध हैं, जैसे कमलासन मुद्रा में बुद्ध बैठे हुए हैं, किन्तु मूर्तियों के मुखमण्डल और वस्त्र निश्चित रूप से यूनानी है जो स्पष्ट तया यूनानी अथवा रोमन कला का प्रभाव है। डॉ. ए. एल. वाशम ने लिखा है कि “गाँधार शिल्पियों ने यूनानी रोमन संसार के देवताओं को अपना आदर्श माना। कभी- कभी उनकी प्रेरणा पूर्णतया पश्चिमी प्रतीत होती है।” गान्धार कला के नमूने वामियान, हस्त-नगर, शाहजी की ढेरी, तक्षशिला, हुडु आदि स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।
इनमें से अधिकाँश पेशावर और लाहौर के अजायब घरों में सुरक्षित हैं। ये मूर्तियाँ स्लेटी पत्थर की हैं। बाद की मूर्तियाँ लाइम प्लास्टर स्टुको तथा धातु की भी हैं। इन मूर्तियों का विषय बौद्ध अथवा भारतीय है किन्तु उनके निर्माण में यूनानी शैली का प्रयोग किया गया है। इस काल के शिल्पकारों ने मूर्तियों के माध्यम से महात्मा बुद्ध के जीवन की विविध घटनाओं को भी प्रदर्शित किया है।
गान्धार कला का सबसे अधिक विकास कुषाण काल में हुआ इस कला की प्रमुख विशेषताएं अग्र हैं।
(1) गान्धार कला की विषय वस्तु भारतीय है किन्तु निर्माण का ढंग यूनानी।
(2) गान्धार कला का विषय प्रधान रप से महात्मा बुद्ध तथा उनके जीवन से सम्बन्धित दृश्य है। बौधिसत्वों की मूर्तियाँ भी काफी संख्या में हैं।
(3) इस शैली में बनी प्रारम्भिक महात्मा बुद्ध की मूर्तियों में उनका चेहरा यूनानी देवता
अपोलो से मिलता जुलता है और मूर्तियों का परिवेश रोमन ‘टोगा' जैसा है।
(4) इस कला के अन्तर्गत विनिर्मित मूर्तियों में शरीर तथा उसके प्रत्येक अंग को यथासम्भव वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का यत्न किया गया है । आकार प्रकार के अतिरिक्त शरीर के पट्ठे, हड़ियाँ, नाडियाँ, पसलियाँ आदि इस काल की मूर्तियों में भली प्रकार से दिखाई गई हैं। महात्मा बुद्ध की वह मूर्ति जिसमें वे घोर तप के फलस्वरूप सूख कर काँटा हो गये। हैं गान्धार कला की एक अद्वितीय कृति है। इसमें बुद्ध का पेट भूख के कारण अन्दर की ओर धेसा है, माँस के सूख जाने से अंतड़ियाँ बिल्कुल नंगी हैं किन्तु उनके चेहरे से गम्भीरता टपक रही है जो इस अवस्था में भी उनके दृढ़ निश्चयी होने का प्रमाण है। श्री बी.एन. पुरी के अनुसार “इस मूर्ति के कलाकार ने जिस योग्यता का प्रमाण दिया है अत्यधिक सराहनीय है।” इस कला में मूर्तियों को भूषण, वस्त्र आदि पहनाये गये हैं। इससे श्रीवृद्धि के साथ सजीवता का भी समावेश हुआ है।
(5) यह कला गान्धार से हुडु और वहाँ से बामियान एवं वहाँ से चीनी तुर्किस्तान तक पहुँची । पाश्चात्य कला समीक्षकों का विचार है कि भारत की सर्वश्रेष्ठ कला का निर्देशन गान्धार कला द्वारा ही होता है। किन्तु इस कथन में लेशमात्र भी सत्यता नहीं है। सत्य तो यह है कि कला के क्षेत्र में भारत पर पश्चिम का प्रभाव कभी गम्भीर न पड़ सका । हैवेल के अनुसार भारतीय कला पर यूनानी कला का प्रभाव केवल तकनीकी था और वह किसी प्रकार भी एक आध्यात्मिक या बौद्धिक प्रभाव नहीं था।
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