भक्ति के बिना इंसान का ह्रदय (heart) उसी प्रकार है जैसे बिना पानी का बहुत बड़ा तालाब . भक्ति श्रद्धा की मूल है (Devotion is the root of reverence) . बिना भक्ति के किसी के प्यार को पाना rare है . प्रभु को पाने के लिए भी श्रद्धा (faith) और भक्ति दोनों की जरुरत होती है . श्रद्धा और भक्ति दोनों ही का अंतिम लक्ष्य सेवा है . इसलिए ज्ञान (knowledge) प्राप्ति के साधन में तीन बातों को आवश्यकता है – प्रणाम , सेवा और प्रश्न .
प्रणाम और सेवा दोनों ही का स्वरुप श्रद्धा से है . फिर ज्ञान प्राप्ति के हेतु जहाँ भी जिस गुरु के पास जाये यह तीन काम करने होंगे .
भगवान को पाने का आसन तरीका
प्रभु से मिलने वाली एक ज्ञान युक्त भक्ति ही है जो भक्त के ह्रदय को धीरे-धीरे निर्मल बनाकर प्रभु दर्शन का अधिकारी बना देता है . इसलिए भगवन ने कहा है भक्तो में मुझे ज्ञानी भक्त ओर भी प्यारा है .
कहते है कि किसी शहर में एक बहुत गरीब रहता था लेकिन था intelligent और श्रद्धावान. उसकी इच्छा हुई की किसी तरह राजा का दर्शन करें , उसकी संगती में बैठे. लेकिन न तो उसके पास सुन्दर कपड़े थे , न कुछ देने के लिए भेट, मन मारकर रह जाता था.
एक दिन उसे एक तरकीब सूझी, उसने तलाश कर लिया कि महाराज सुबह चार बजे उठकर घुमने जाया करते है . बस उसने उस रास्ते जहाँ से होकर राजा जाते थे , झाड़ना प्रारंभ कर दिया , आज जब महाराज निकले तो रास्ता पूरा साफ था . इस तरह वह उनके जाने से पहले ही रास्ते में झाड़ू लगा देता था.
कई दिन जब राजा ने ये देखा तो सोचा कोई गरीब आदमी धन के लिए ऐसा करता है. इसलिए एक दिन आपने एक छोटा सा हिरा उस रास्ते में रख दिया, वह झाड़ू लगाने आया और हिरा उठाकर ले गया, उसे बेच कर अच्छा मकान बनवाया , कपड़े आदि की सुन्दर व्यवस्था (arrangement) की , लेकिन उसने रास्ते में झाड़ू लगाना नहीं छोड़ा.
राजा ने दूसरा हिरा रास्ते में डाला, वह भी ले गया , इस प्रकार वह खूब मालदार हो गया. लेकिन झाड़ू लगाना फिर भी नहीं छोड़ा. अबकी बार कुछ पहरेदारों को लगाया की यह कौन है जो रोज रास्ते में झाड़ू लगाता है , हमारे सामने लाओ. आब क्या था , पहरेदारों ने उसे पकड़ा और राजा के सामने दरबार में उपस्थित कर दिया .
राजा ने कहा – तुम्हे इतना धन दिया गया फिर भी तुमने रास्ते में झाड़ू लगाना नहीं छोड़ा ?
महाराज ये काम मैंने धन की लालच में नहीं किया था. वह तो आपकी देन थी . मेरा मकसद सिर्फ आपके दर्शन करना था. संसार की सारी चीजें मिल जाये लेकिन जब तक प्यार न मिले, तब तक कर्म त्यागना ही क्यों ? आज उसी कर्म ने तो आपका दर्शन कराया है . धन , संपत्ति पाकर अगर में बैठ जाता तो आपका दर्शन कैसे पता ? राजा प्रसन्न हो गया और उसका नाम दरवारियों में लिख लिया गया . आखिर में वह राजा को इतना प्रिय लगा की सब काम उसके ऊपर ही डाल दिया .
अपनी ही श्रद्धा दुसरो के ह्रदय में श्रद्धा पैदा कर देती है . श्रद्धा के ऊपर ही ज्ञान का स्थान है . जब गुरु (teacher) के प्रति शिष्य (student) की पूर्ण श्रद्धा हो जाती है तो फिर उसका विश्वाश भी अटल हो जाता है . विश्वाश के आते ही शिष्य अपना समर्पण गुरु के प्रति कर देता है और तभी गुरु शिष्य के अंत:करण को अपने अंत:करण से मिलाता और अपना सारा ज्ञान तथा सम्पूर्ण सक्तियाँ शिष्य के अंत:करण में डाल देता है .
यह क्रिया तब तक नहीं हो सकती जब तक कि शिष्य अपने को गुरु के समर्पण नहीं कर देता . इस क्रिया के करने में ही देर लगती है , आगे ज्ञान आने में देर नहीं लगती . पहले हम गुरु को अपने अंत:करण में लावें , फिर आगे गुरु शिष्य को अपने अन्त:करण में स्थान देता है . बस वह शिष्य धन्य है जिसकी गुरु ने अपना लिया , फिर वही मालामाल भी हो गया . इसमें शिष्य को कुछ करना नहीं , केवल सब तरफ से चित्त हटाकर उनकी ओर देखना ही है . साडी शाधना का तत्वा ही यही है कि मनुष्य संसार के सब सुखों से मूंह मोड़कर ईश्वर की ओर लगा दे .
यही भक्ति है , भक्ति एक ऐसा सुन्दर गुण है कि दुसरो को लाचार कर देता है . भक्ति से मनुष्य तो क्या ईश्वर भी प्रसन्न हो जाता है . ज्ञान प्राप्ति का एक ही उपाय है भक्ति .
जब हम गुरु को पहचान लें , उस पर पूर्ण श्रद्धा भक्ति ले आये तो ज्ञान का रुका हुआ श्रोत खुल जाता है . मैंने तह अपनी आँखों देखा है की जब शिष्य का अन्त:करण के समीप पहुँचता है तो गुरु उसमे अपनी सारी शक्तियां डाल देता है . शिष्य मांगता नहीं , परन्तु धन राशी को भी कहा रखे .
चाहे उसके सहस्त्रो शिष्य हो , पूर्ण विद्वान और आज्ञाकारी भी हो , परन्तु फिर भी वह जिसके ह्रदय में रखना चाहे , रख दे .
श्री रामानन्द जी ने यह वास्तु कबीर साहब और रेदास साहब को सुपुर्द की , श्री माधवाचार्य जी ने नेत्रहीन शिष्य विल्वामंगल (सूरदास) के ह्रदय में रक्खी . चरणदास जी ने यह ज्ञान-रत्न सहजोबाई को सौप दिया , श्री रेदास जी ने ताहि ज्ञान का भंडार मीराबाई के हवाले किया . बहुत से मुसलमान संतो ने किसी हिन्दू शिष्य को भी सौप दिया .
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