सारनाथ


baudh dharm ke sthal saarnathबनारस की दो प्रसिद्द चीजें हैं जिनके बारे में हम सब बचपन से सुनते चले आ रहे हैं, उनमें से एक है बनारस की साड़ी और दूसरा है बनारस का पान। साड़ी की बात हम बाद में करेंगे पहले बात करते हैं पान की, तो साहब आपने अमिताभ जी का वो गाना तो सुना ही होगा खाई के पान बनारस वाला …… हमने भी बहुत सूना है। और यह गाना ही क्या वैसे भी कई बार और कई मौकों पर बनारसी पान का जिक्र सुना है, तो जब बनारस जाने का प्लान बनाए तो यह निश्चित कर के जाए कि चाहे कुछ भी हो बनारस का पान तो खाकर ही आएंगे।

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उत्तरप्रदेश में वाराणसी या काशी के पास सारनाथ एक छोटा सा गांव है। काशी या वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। काशी के तीर्थ स्थलों में सारनाथ का विशेष महत्व है। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है पहले यहां घना जगंल था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम ‘ऋषिपत्तन मृगदाय’ था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने बोध गया से ज्ञान प्राप्त कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पंचवर्गीय भिक्षुओं  को अपना पहला उपदेश यहीं पर दिया था।

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सम्राट अशोक के समय में यहां बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहां का ‘धमेक स्तूप’ सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्त्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया।

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सारनाथ बौद्ध धर्म का प्रधान केंद्र था किंतु मोहम्मद गोरी ने आक्रमण करके इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। वह यहां की स्वर्ण मूर्तियां उठा ले गया और कलापूर्ण मूर्तियों को उसने तोड़ डाला फलतः सारनाथ उजाड़ हो गया। केवल धमेख स्तूप टूटी-फूटी दशा में बचा रहा। यह स्थान चरागाह मात्र रह गया था।


सन्‌ 1905 ई. में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई का काम प्रारंभ किया। इतिहास के विद्वानों तथा बौद्ध धर्म के अनुयायियों का इधर ध्यान गया। तब से सारनाथ महत्व प्राप्त करने लगा। इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहां वस्तु संग्रहालय स्थापित हुआ, नवीन विहार निर्मित हुआ, भगवान बुद्ध का मंदिर और बौद्ध धर्मशाला बनी। सारनाथ अब बराबर विस्तृत होता जा रहा है। जैन ग्रंथों में इसे सिंहपुर कहा गया है। जैन धर्मावलंबी इसे अतिशय क्षेत्र मानते हैं। श्रेयांसनाथ के यहां गर्भ, जन्म और तप- ये तीन कल्याण हुए हैं। यहां श्रेयांसनाथजी की प्रतिमा भी है यहां के जैन मंदिरों में। इस मंदिर के सामने ही अशोक स्तंभ हैं।



सारनाथ की दर्शनीय वस्तुएं हैं-
भगवान बुद्ध के चिन्दों के वजह से सारनाथ आज भी पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है तो आइए जानते है उन्हीं चिन्हों के बारे में.....


धम्मेक स्तूप : भगवान बुद्ध ने अपने धम्म का प्रथम ऐतिहासिक उपदेश पंचवर्गीय भिक्षुओं को जिस स्थान से दिया था वह धम्मेक या धमेक आदि नामों से जाना जाता है। यहीं से बुद्ध ने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय और लोकानुकम्पाय” का आदेश पंचवर्गीय भिक्षुओं को दिया था। सम्राट अशोक ने इसे अति विशेष ईंटों एवं पत्थरों द्वारा 30 मीटर घेरे में गोलाकार और 46 मीटर ऊंचे एक स्तूप के रूप में बनवाया था। अशोक यहां अपने राज्यारोहण के 20 वर्ष बाद अपने गुरू मोंगलिपुत्र तिस्य के साथ आए थे। स्थिर पाल-वसन्तपाल के शिलालेख के अनुसार धम्मेक का पुराना नाम धर्मचक्र स्तूप था। प्रथम उपदेश देने के वजह से बौद्धअनुयायी इसे साक्षात बुद्ध मान कर इसकी पूजा वन्दना और परिक्रमा आदि करते हैं।



चौखण्डी स्तूप : यह स्तूप मिट्टी के बहुत ऊंचे टीले पर पक्की ईंटो के ठोस थूहा के ऊपर आठ फलक रूप इमारत है। चौकोर कुर्सी पर बना होने के कारण चौखण्डी स्तूप कहा जाता है। यह 84 फीट ऊंचा ईटों के टूटे-फूटे एक प्राचीन स्तूप का अवशेष है। यहीं पर खुदाई से बुद्ध की धम्मचक्कपवत्तन की मुद्रा में बैठी एक मूर्ति प्राप्त हुई है। जो भगवान बुद्ध की बैठी अवस्था में संसार की सबसे सुन्दर मूर्ति बताई जाती है।
ऐतिहासिक आधार पर बाबर के बेटे हुंमायू ने भाग कर चौखण्डी में छिप कर शरण ली थी। जिससे उसकी जान बची अकबर (हुंमायू का बेटा) ने सन् 1588 में उसी स्मृति में चौखण्डी के ऊपरी भाग (शिखर) को बनवाया। उपरी भाग तक पहुंचने के लिए पैदल मार्ग है।

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धर्म राजिक स्तूप : सम्राट अशोक से पूर्व भगवान बुद्ध की अस्थियों पर केवल आठ स्तूपों का निर्माण किया गया था। अशोक ने आठ स्तूपों में से सात की खुदाई करके उनमें से बुद्ध के शरीर की धातुओं को निकाल कर उनका विस्तार कर अनेक स्तूप बनवाए जो धर्मराजिक स्तूप कहलाए गए। ऐसा ही एक सारनाथ में बनवाया था। मूल स्तूप का व्यास 13.49 मीटर था। इस स्तूप का क्रमशः छः बार परिवर्द्धन किया गया। कालान्तर में वाराणसी के राजा चेत सिंह और दीवान जगत सिंह ने 1794 में धर्मराजिक स्तूप को विध्वंस कर दिया था। जहां से 8.23 मी0 की गहराई पर एक गोलाकार पत्थर के सन्दूक में भगवान बुद्ध की अस्थियां पाई गई थी, जिसे गंगा में बहा दिया गया। पत्थर का सन्दूक आज भी कलकत्ता के संग्रहालय में सुरक्षित है। वर्तमान समय में धमराजिक स्तूप के नाम पर मात्र नींव ही सुरक्षित है।

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अशोक स्तम्भ : बुद्ध के दिए 84 हजार उपदेशों से प्रेरित होकर अशोक ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले स्थानों पर शैल स्तम्भ (पत्थर के स्तम्भ) बनवाए थे। स्तम्भों के अलावा शिलालेख चैत्य और बुद्ध विहारों का भी निर्माण कराया था। इसी कड़ी में निर्मित यह स्तम्भ मूलगन्ध कुटी से पश्चिम दिशा में बनाया गया था। मूल रूप से यह 15.25 मीटर ऊंचा था। जिसके ऊपरी सिरे पर चार सिंह (सिंह शीर्ष) थे। अब यह केवल 2.03 मीटर टूटे हुए डण्डे की तरह अपने वास्तविक स्थान पर खड़ा है। स्तम्भ का आधार 2.44 मीटर लम्बा, 1.83 मीटर चौड़ा व 0.46 मीटर मोटा पत्थर है, जिसके खांचे में शेष स्तम्भ खड़ा है। इस पर तीन लेख उत्कीर्ण है। पहला सम्राट अशोक ने ब्राह्मी लिपि में संघ के सम्बन्ध में लिखवाया है कि – “जो भिक्षु और भिलखुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे उन्हें सफेद कपड़े पहना कर संघ से बाहर कर दिया जाएगा।”

अशोक सिंह शीर्ष (राजचिन्ह) :अशोक स्तम्भ के ऊपरी सिरे पर पीठ से सटाकर उकडूं मुद्रा में बैठे हुए चार सिंह चारों दिशाओं की तरफ मुंह किए स्थापित हैं। इस चारों सिंहों के ऊपर भगवान बुद्ध का 32 तिल्लियों वाला धम्म चक्र विद्यमान था। जो आज उसके ऊपर स्थापित नहीं है। वह सारनाथ संग्रहालय में प्रवेश करने के स्थान पर ही एक हॉल में सुरक्षित रखा गया है। इसकी उत्कृष्ट कलाकारी इसे अद्वितीय प्रतिमाओं में शामिल करती है जिसके कारण सरकार ने इसे अपना राजचिन्ह घोषित किया है। यह सिंह शीर्ष चार भागों में बंटा है। पलटी हुई कमल की पंखुडियों से ढका हुआ कुम्भिका भाग।, गोलाकार भाग जिसमें चार धर्मचक्र व चार पशु क्रमशः हाथी, वृषभ (सांड), अश्व व सिंह बने हुए हैं।, चारों सिंह एक दूसरे के विपरीत पीठ सटाकर चारों दिशाओं की ओर मुंह कर उकइं मुद्रा में बैठे हैं।, इन चारों के ऊपर धर्मचक्र स्थापित था जो अब नहीं है यह प्रतिमा भूरे रंग की बलुआ की बनी है।

आधुनिक मूलगन्ध कुटी विहार मंदिर : मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ है जो यहाँ पर सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता है। ऐसा कहा जाता है की सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुरधपूरा में लगाईं थी, उसी पेड़ की एक शाखा को यहां सारनाथ में लगाया गया है।  गौतम बुद्ध तथा उनके शिष्यों की प्रतिमाएं म्यांमार के बौद्ध श्रद्धालुओं की सहायता से यहाँ लगाईं गई हैं। इसी परिसर में भगवान बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की प्रतिमाएं भी स्थित हैं। यहां रखी बुद्ध की अस्थियों को हर वर्ष कार्तिक माह की पूर्णिमा वाले दिन श्रद्धालुओं के पूजन के लिए बाहर रखा जाता है और सम्पूर्ण सारनाथ में जुलूस के साथ परिक्रमा करके उसको दुबारा उसी स्थान पर रखा जाता है। 

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