जैन धर्म के 16वें तीर्थंकर प्रभु शान्तिनाथ जी हैं। इनका जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को भरणी नक्षत्र में हस्तिनापुर के इक्ष्वाकु वंश में हुआ। इनके माता- पिता बनने का सौभाग्य राजा विश्वसेन व उनकी धर्मपत्नी अचीरा को प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार शान्तिनाथ, भगवान के अवतार थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में शान्ति व अहिंसा से प्रजा की सेवा की।
जीवन परिचय :
पिता की आज्ञानुसार भगवान शान्तिनाथ ने राज्य संभाला। पिता के पश्चात भगवान शान्तिनाथ ने राजपद संभालते हुए विश्व को एक सूत्र में पिरोया। पुत्र नारायण को राजपाट सौंपकर भगवान शान्तिनाथ ने प्रवज्या अंगीकार की। प्रभु शान्तिनाथ ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को दीक्षा प्राप्त की। बारह माह की छ्दमस्थ अवस्था की साधना से प्रभु ने पौष शुक्ल नवमी को ‘कैवल्य’ प्राप्त किया। इसके साथ ही धर्मतीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद पर विराजमान हुए। ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन सम्मेद शिखर पर भगवान शान्तिनाथ ने मोक्ष प्राप्त किया।
चिह्न का महत्त्व :
भगवान शान्तिनाथ के चरणों में हिरण का प्रतीक पाया जाता है, जो स्वाभाविक तौर पर बहुत ही भोला व शांत होता है। हिरण की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह संगीत के प्रति आकर्षित होता है, और इसी कमजोरी का फायदा उठाकर शिकारी हिरण का शिकार करते हैं। हिरण द्वारा हमें यह शिक्षा मिलती है कि मधुर संगीत के तरह प्रिय लगने वाले दुश्मनों की मीठी बातों में फंसना नहीं चाहिए, अन्यथा अंत में पछताना ही पड़ेगा।
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